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________________ योग-प्रयोग-अयोग/१७१ कोष्ठक १२ तारा दृष्टि का कोष्ठक दर्शन गौमय अग्नि कणवत योगांग नियम अनुद्वेग दोषत्याग गुणप्राप्ति अन्य गुण समूह उद्वेग जिज्ञासा योग कथाप्रीति, योगीजन त्याग प्रति आदर सत्कार बहुमान हितोदय, उपद्रवनाश, शिष्ट संमतता, भवभय पलायन । उचित आचरण, अनुचित अनाचरण । गुणानुरागी के प्रति जिज्ञासा निज गुण हानि से खेद । भव वैराग्य, शिष्ट प्रमाण । ३. बलादृष्टि साधक के चित्त की उज्ज्वलता जैसे-जैसे बढ़ती जाती है। साधक का प्रकाश प्रज्ज्वलित होता जाता है। ऐसी दृष्टि बलादृष्टि कहलाती है। इसे काष्ठ की चिनगारी की उपमा दी गई है। योग क्रिया में वह आसन क्रिया अपनाता है और चित्त को विक्षेप रहित करता है, उसमें सत्यतत्व जाने कि मैं कौन हूँ, मेरा वार तविक स्वरूप क्या है, और संसार क्या है । दुःखों से छुटकारा किस प्रकार हो सकता है इत्यादि जानने समझने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो जाती है। फलस्वरूप ज्ञानी गुरू की वह खोज करने लगता है। उसकी स्वाभाविक वृत्तियाँ ही ऐसी हो जाती हैं कि उसे असत् तृष्णा पैदा ही नहीं होती और वह सदा सर्वत्र सुख-शांति का अनुभव करता है। विकट परिस्थिति का संयोग और वातावरण क्यों न हो, वह घबराता नहीं है, किन्तु सावधानी से चित्त की स्थिरता से कार्य करता है। धार्मिक क्रिया भी एकाग्रतापूर्वक करता है। मित्रा दृष्टि में जो योग बीज प्राप्त हुये थे, यहाँ अंकुरित होने लगते हैं, अतः जिससे साधक की सुश्रूषा शक्ति बदलती हो, वह बला दृष्टि है।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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