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________________ व्याख्या पात्र 荐 बोध पाप प्रवृत्ति लक्षण परिणाम प्रवृत्ति - निवृत्ति वेद्य संवेद्य नहीं होता परमार्थ से वेद्यसंवेद्य होता है परमार्थ से अपद । पद । भवाभिनन्दी साम्प्रतदर्शी. मिथ्या मुमुक्षु निश्चय सम्यग्दृष्टि । दृष्टि । स्थूल-असत् क्योंकि अपाय सूक्ष्म-सत् क्योंकि अपाय शक्ति शक्ति मालिन्य एवं अतात्विक । मालिन्य नहीं अपाय दर्शन तात्विक । पाप प्रवृत्ति होती है। विपर्यास, विवेकान्धता, अतिमोह, विषय, कुतर्क, ग्रह योग - प्रयोग - अयोग / १७५ संसार प्रति अनुद्वेग, भोगासक्ति कृत्याकृत्य भ्रांति ११. योगदृष्टि समुच्चय - श्लो. ११० से ११४ नहीं होती अगर हो तो अंतिम तप्त लोह पदन्यास जैसी अविपर्यास सदविवेक, अमोह ग्रह से रहित । संवेगातिशय- परम वैराग्य अनाशक्ति अभ्रान्ति । असत् चेष्टा प्रवृत्ति, सत्चेष्टा सद् चेष्टाप्रवृत्ति, असत् चेष्टानिवृत्ति निवृत्ति स्वरूप अधरूप सम्यग्दर्शन रूप फल आत्मबंधन, दुर्गतीपात अबन्ध, सुगति प्राप्ति । गुणस्थान प्रथम चतुर्थ- देशविरति इत्यादि । यहाँ चतुर्थ दृष्टि में देवों की भक्ति के दो भेद बताये हैं - ( १ ) चित्र और (२) अचित्र । संसारी देवों की भक्ति अचित्र प्रकार की है क्योंकि उनका स्वरूप अचित्र प्रकार का है, और उस भक्ति में मोहवश इष्ट देवों के प्रति राग और अनिष्ट देवों के प्रति द्वेष होता है किन्तु संसारातीत पद मुक्त तत्व की जो भक्ति है, वह अचित्र है और वह सम्मोह के अभाव से समप्रधान होती है | इस प्रकार अवेद्य सवेद्य पद से चित्र भक्ति और वेद्य संवेद्य पद से अचित्र भक्ति की आराधना सफलता से मिलती है।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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