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________________ योग-प्रयोग-अयोग/ १४९ में निर्वाण को प्राप्त करेंगे। यह नियम सत्य है।६ "जिन वचन की आज्ञा का आराधक" अन्तर्मुहूर्त में कैवल्यज्ञान प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार क्षीणमोह पर्यन्त सर्वज्ञ की आज्ञा का अवलम्बन आवश्यक है। अतः कर्म रूपी कैद से मुक्त होने के लिये आज्ञा ही सर्वोत्तम है । "जिनाज्ञा ज्ञेय स्वरूप में विरोधी पाँच हेतु" १. मतिदौर्बल्यता अर्थात् बुद्धि की जड़ता हो या मन की विक्षिप्त दशा हो, २. दोनों स्थिति में उपदेश श्रवण करते समय मन में सम्यक अवधारणा नहीं होती, ३. अगर जड़ बुद्धि न हो तो भी विक्षिप्त और यातायात दशा होने से सम्यक् भाव की परिणति नहीं होती। ___४. बुद्धि हो किन्तु तथाविध आज्ञार्थ का अभाव हो तो यर्थाथ बोध का प्रतिपादन भी नहीं हो सकता। ५. यदि बुद्धि एवं यथार्थ दोनों की संप्राप्ति हो किन्तु ज्ञेय की गहनता हो तब भी यथार्थ बोध नहीं होता है। विधि सेवन से लाभ जिनेश्वर भगवन्त अचिन्त्य चिन्तनीय है अतः उनकी आज्ञा को मान्य करने वाला, धर्म का आदर करने वाला, विधि तत्पर और उचितवृत्ति वाला है। धर्म के प्रति बहुमान होने पर ही विधि तत्परता पर श्रद्धा होती है। क्योंकि विधि प्रयोग भाव प्रधान है, श्रद्धा का सम्बन्ध संवेगादि शुभ आत्मपरिणामस्वरूप की पुष्टि करता है। तात्पर्य यह है कि वह धर्म का अनुरागी हो अर्थात् अन्य पुरुषार्थ की अपेक्षा धर्म की प्रधानता रखता हो तभी वह धर्माचरण में उपयोगी, अच्छा संवेग संभ्रमादि भावोल्लासी हो सकता है। भावोल्लास के सदभाव से अर्थात विधियुक्तता से उचित वृत्ति संभव है। विधि के अभाव में उचित वृत्ति का भी अभाव होता है। अर्थात् इस लोक सम्बन्धी ही नहीं, परलोक में अहित होने से कृत्य करने वालों का दूर से ही परित्याग करना चाहिए।१०आज्ञा का बहुमान करने से त्रिभुवन गुरु श्री अरिहन्त परमात्मा का सच्चा ६. वीतराग स्तव श्लोक ४ से ७, पृ. ३५१ से ३५८ ७. वही८, पृ. ३५९ ८. सिद्धसेन दिवाकर कृत सक्रस्तव ९. ललित विस्तरा पृ. १३ १०. ललित विस्तरा पंजिका पृ. १५
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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