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________________ १५०/योग-प्रयोग-अयोग बहुमान होता है, लोक संज्ञा का परित्याग होता है और वास्तविक धर्म का आचरण होता है। अतः जिनाज्ञासुसारिता में धर्मानुराग सुरक्षित रहता है।११ "अविधि के सेवन से महाअकल्याण" विधिवत् सम्यक्त्व का आसेवन करने वाले महाकल्याण को प्राप्त होते हैं, किन्तु अविधि के आसेवन से अनधिकारी जीव महत् अकल्याण को प्राप्त होते हैं। अविधि से अनुष्ठान करने वाले पक्षपाती स्व मत की पुष्टि हेतु अपना प्रस्ताव रखते हैं कि अविधि से होने वाले अनुष्ठान से तीर्थ का रक्षण होता है । यह असत् आलम्बन है क्योंकि अविधि युक्त धर्मानुष्ठान करने से मृषावाद का पाप और शुद्ध क्रिया का लोप, उभय हानि होती है। विपरीत विधि से अशुद्धता की वृद्धि, सूत्रोक्त क्रिया का अभाव, अतिक्रम, अतिचार और अनाचार का आसेवन इत्यादि दोष भी उपस्थित होते हैं। आज्ञा विराधन अनुष्ठान में स्वेच्छा से प्रवृत्ति करने पर उस महाविधि की लघुता होती है। इससे पूज्य की पूजा स्वरूप शिष्टाचार का परित्याग होता है। अर्थात् अर्हन्त भगवन्त का सर्व आदेश शिरोधार्य करना यही शिष्ट पुरुषों का आचार है, उसका लोप होता है। फलतः दूसरे उपाय से भी संभावित ऐसे जो शुभ अध्यवसाय और इससे जनित विशिष्ट कर्म क्षय एवं कल्याण स्वरूप इष्ट फल, उनकी सिद्धि की भी अवश्य रुकावट हो जाती है। आज्ञा भंग से कल्याणकारी वास्तविक शुभ अध्यवसाय की भूमिका ही नष्ट प्रायः हो जाती है। पूर्वधर महात्माओं ने आत्महितार्थ धर्मानुष्ठान का उपदेश दिया है। उसका विनाश या अशुद्ध व्यवहार से अधर्म की वृद्धि और उससे महामोह कर्म का जो अनुबन्ध होता है उससे भी अविधि के उपदेशकर्ता महान् दोष के पात्र होते हैं। उत्सूत्र प्ररूपणा शरणागत का शिरोंच्छेदद्वत् है ।१२ लोक एवं प्रमाणम्" इस उक्ति के अनुसार जो लोक संज्ञा गतानुगतिक प्रेरणा है, यह भी हानिप्रद है। क्योंकि जहाँ तक सर्वज्ञ प्रणीत सिद्धान्तों का रहस्य गीतार्थों से ज्ञेय नहीं तब तक विधि युक्त अनुष्ठान उपादेय नहीं हो सकता १३ जो शिथिलाचारी गुरु भोले शिष्यों को धर्म के नाम से अपने जाल में फंसाते हैं और अविधि (शास्त्रविरुद्ध) धर्म का उपदेश करते हैं उनसे जब कोई शास्त्रविरुद्ध उपदेश न देने के लिये कहता है तब वे धर्मोच्छेद का भय दिखाकर उद्धत हो बोल ११. ललित विस्तरा पंजिका पृ. १८ १२. योगविंशिका गा. १४/१५ षोडषक १० गा. १४/१५ १३. योगविंशिका गा. १६
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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