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________________ १४८ / योग-प्रयोग-अयोग मोहनीय कर्म के क्षयोपक्षम के अभाव में छठवाँ गुणस्थान संभवित नहीं । चरित्र मोहनीय के क्षयोपशम से वीर्यान्तराय का क्षयोपशम होता है, क्योंकि इन दोनों का अविनाभावी सम्बन्ध है। जिन-आज्ञा विधि युक्त आचार से सम्पूर्ण पाप वृत्ति रूप विष का नाश होता है। जैसे बाह्य विष भयंकर होने पर भी विधियुक्त मन्त्र जप से निष्फल होता है, उसी तरह अविधि से उत्पन्न कर्म का अनुबन्ध आज्ञा योग से ही हटाया जा सकता है। विधियुक्त आलोचना-प्रायश्चित्त इत्यादि अनुष्ठानों का समावेश भी आज्ञायोग में हो जाता है । ध्यानशतक में जिनेश्वर भगवन्तों की आज्ञा चिन्तन विषयक तेरह विशेषण बताये हैं । जैसे (१) सुनिपुण, (२) अनादिनिधन, (३) भूतहिता, (४) भूतभावना, (५) अनर्थ्य, (६) अमिता, (७) अजिता, (८) महत्त्व, (९) महानुभाव, (१०) महाविषय, (११) निरवघ, (१२)अनिपुण दुर्जे और (१३) नयभंग योगशास्त्र में सर्वज्ञों की आज्ञा को ही सर्वोपरि मानकर उसका तात्त्विक रूप से अर्थों का चिन्तन करना आज्ञा.ध्यान कहा गया है, क्योंकि सर्वज्ञ की आज्ञा तर्क एवं युक्तियों से अबाधित, पूर्वापर विचारों से अविरोधी, सूक्ष्मतास्पर्शी एवं असत्य भाषण रहित होती है ५ "आज्ञा योग ही धर्म है" आज्ञायोग याने आगम युक्त विधि का धर्मयोग। शासन मान्य विधि युक्त धर्म से किया हुआ समस्त अनुष्ठान आज्ञायोग है। समस्त विभाग से आत्मा को व्यावृत्त कर स्वभाव में अनुरक्त होना ज़िन भगवन्त की प्रमुख आज्ञा है। आज्ञायोग का प्रमुख सूत्र है"आणाएधम्मो आणाएतवो" आज्ञा ही धर्म है और आज्ञा ही तप है। जिन आज्ञा का आराधन सिद्ध पद का सर्वश्रेष्ठ उपाय है और विराधन संसार का हेतु है। आज्ञा को ही श्रीमद राजचन्द्र जी ने परम पुरुष की प्रमुख भक्ति कहा है। इसी प्रकार जिन भगवन्तों ने हेय स्वरूप आश्रव और उपादेय स्वरूप संवर को भी शाश्वत आज्ञा का स्वरूप दिया है। वीतराग स्तव में श्री हेमचन्द्राचार्य ने आज्ञा को "आर्हती मुष्टिका" विशेषण दिया है। आश्रव से बन्ध और संवर से मोक्ष रूप"आर्हती मुष्टि" रूप आज्ञा की आराधना, उपासना और साधना में तत्पर तन्निष्ठ ऐसे अनन्तजीव अतीत में परिनिवृत्त हुए हैं, वर्तमान में क्षेत्र पर्यायानुसार परिनिर्वाण मोक्ष को प्राप्त कर रहे हैं, और अनागत काल ४. ध्यानशतक श्लोक ४५/४ पृ. १४४ ५. योगशास्त्रश्लोक-८/९ पृ. २५७ दशम प्रकाश
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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