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________________ ५. आचार संविधा का प्राण विधानों में आज्ञा योग __ जैन वाड्.ग्मय में जैन आचार विधानों में आज्ञायोग का स्थान अपूर्व है। जैनागमों में धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान को मोक्ष का हेतु माना गया है। आज्ञायोग धर्मध्यान के चार भेदों (आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय) में प्रथम हैं। १ अतः जैन वाड्.ग्मय में आज्ञायोग का स्थान सर्वोपरि है, सर्वोत्तम , एवं मोक्ष सिद्धि का परम उपाय रूप है । आज्ञायोग क्या है ? आज्ञायोग याने जिनेश्वर भगवन्त का जिनवचन, जिनागम या जिनाचार का भाव युक्त बहुमान, आदर, सत्कार और पुरस्कार । आज्ञा बहुमान का बाह्यलिंग आचार विधि है। जिन आज्ञा विधि और उसका विशुद्ध अनुष्ठान ही निरतिचार आज्ञापालन है। __विशेषावश्यक भाष्य में अनुष्ठान को ही आज्ञा कहा है । २ अनुष्ठान, आदेश, निर्देश, कर्त्तव्य, आचारविधि इत्यादि आज्ञा के ही पर्यायवाची शब्द हैं। "आज्ञायोग की चिन्तन-विधि" यथाशक्य आज्ञा जिनवचन का बहुमान शुभ धर्मध्यान रूप अनुष्ठान है। वीतराग भगवन्तों से प्ररूपित आगमानुसार पदार्थों का निश्चय करना, श्रवण करना, चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है ५३ साधु जीवन आचार विधि का प्राण है। आचार विधि युक्त सदनुष्ठान से चारित्र १. (क) तत्त्वार्थसूत्र-९/३७ खि ज्ञानार्णव श्लोक ५ प 3310 सर्ग 33 (ग) आवश्यक निर्युक्तेखचूर्णि पृ. ८० (घ) योग शास्त्र दशम प्रकाश श्लो. ७ पृ. २५, ६ (ड) अध्यात्मसार श्लोक ३६ पृ. ३५३ (च) शास्त्रवार्ता समुच्चय-९/२० २. अभिधान राजेन्द्रकोष पृ. १३० ३. ज्ञानार्णव-सर्ग ३३ श्लोक ८
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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