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________________ योग-प्रयोग-अयोग/१३१ प्रभु भक्ति की लीनता में परमात्मा की अनन्त करुणा, "सवि जीव करूँ शासन रसी" की उत्कृष्ट भावना एवं परोपकार प्रविणता कारणभूत है । गुण प्रकर्षण और अचिन्त्य शक्ति से ही यह सारा कार्य होता है। भगवद् भक्ति से अनन्त जन्मों के कर्मों का क्षय होता है, और करोड़ों वर्षों के तप का फल मिलता है और सर्व कामनाएं सिद्ध होती हैं । जन्म, जरा और मृत्यु का भय टलता है। अनेक प्रकार के कष्ट, विघ्न और दुविधाएँ दूर होती हैं । मंगल और कल्याण का वरदान मिलता है। दुर्जन सज्जन हो जाता है। भव जल तरण, शिव सुख मिलन और आत्मोद्धार करण सहज हो जाता है। भक्ति रूप साधना से अज्ञान अन्धकार का नाश होता है, विषय कषाय मंद होते हैं और सत्प्रवृत्ति की प्रेरणा मिलती है । फलतः उत्तम जन्मों की परम्परा से अल्प समय में घाती कर्मों के नाश से केवलज्ञान और सर्व कर्मों के नाश से अन्त में मुक्ति मिल जाती है। इन अलभ्य लाभों की परम्परा का मूल हेतु भक्ति की तन्मयता है। भक्ति के प्रकार अध्यात्मसार में उपाध्याय यशोविजयजी ने भक्ति के चार प्रकार बताए हैं(१) आर्त-संसार के दुःखों से त्रस्त जीवात्मा । (२) तत्त्वजिज्ञासु-दुःखनाश, सुखप्राप्ति की अभिलाषा रहित परमात्म अनुग्रह प्राप्त कर परम तत्व का जिज्ञासु । (३) धनेच्छु-धनादि की कामना वाले जीवात्मा। (४) ज्ञानी-कर्मयोग और भक्तियोग द्वारा परमात्मा को ही परम सत्य मान उन्हीं का अस्तित्व स्वीकार करने वाला ज्ञानी । __इन चारों में धनेच्छ को छोड़कर शेष तीन प्रशंसनीय हैं, क्योंकि उन तीनों का ध्येय परमात्मतत्व है। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि धनेच्छु भक्ति अर्थ आदि की प्राप्ति के हेतु होती है। अतः ऐसी भक्ति विष अनुष्ठान कही जाती है उसे परमात्म भक्ति कैसे कहा जा सकता है? तथा उपाध्यायजी के अनुसार उसे प्रशंसनीय भी कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान ऐसे है कि यहाँ जो धनेच्छू अर्थात् धन के अर्थी को प्रशंसनीय कहा है वह वस्तु विशेष के रूप में कहा है। यहाँ वस्तुलक्ष्य परमात्मा है। धन का अर्थी होने पर भी यहाँ भक्त धन के लिए कहीं याचना करने नहीं जाता किन्तु परमात्मा की भक्ति में लीन रहता है। अतः उसका लक्ष्य भक्ति होने से वह प्रशंसनीय २९. आतों जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चंचित चतुर्विधाः । उपासकास्त्रयस्तत्र धन्या दस्तुलिपोषतः ।। -अध्यालामार .०१, पृ. ३३४
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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