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१३०/ योग-प्रयोग-अयोग
प्रभु भक्ति में लीन बने हुए अनेक कविगण भक्ति रस में आप्लावित होकर काव्यों का सर्जन करते हैं। प्राचीन काव्यों का आलम्बन प्राप्त कर अनेक भक्त आत्मा भगवद् भक्ति के अनुरागी होते हैं। आत्मकल्याणकारी मार्ग में प्रयाण करने की इच्छा वाले मुमुक्षु आत्मा का आशय शुभ होने पर भी भूमिका भेद से एवं क्षयोपशम की भिन्नता से अपनी-अपनी क्षमतानुसार जीव अरिहन्त परमात्मा की भक्ति में अधिकाधिक सुस्थिर होते हैं। इस प्रकार अरिहन्त परमात्मा के अनन्य भक्ति भाव स्वरूप में आप्लावित आत्मा अरिहन्त स्वरूप को प्राप्त करता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने शक्रस्तव में स्पष्ट किया है कि-"यो जिनः सो हमेव च"हम सब ऐसी परमात्म भक्ति में संल्लीन होवें और हम सभी को ऐसा महत् पद प्राप्त होवे कि हम शक्ति में लीन होकर भगवान् हो जावें । "भक्ति की अचिन्त्य शक्ति __ ऐसे तो भक्ति वैराग्य और ज्ञान की पूर्व भूमिका है। भक्ति के अभाव में ज्ञान और वैराग्य अस्थिर होते हैं। कई महर्षियों ने तो भक्ति में तल्लीन होकर मुक्ति से भी भक्ति को श्रेष्ठ स्थान दिया है । उपाध्याय यशोविजयजी ने एक स्थान पर "भक्तिभागवती बीज" कहकर भक्ति को वीतराग का, मोक्ष का, सम्पदा (लक्ष्मी) का, बीज माना है। प्रभु भक्ति अवश्य मुक्ति का साधन है, उपाय है और मोक्ष प्राप्ति का कारण है। मुमुक्षुओं के लिये मोक्ष प्राप्ति यह कार्य है और प्रभु भक्ति यह कारण है। अतः जिसे कार्य की इच्छा हो, उसे अनवरत आदर, सत्कार और भावोल्लास से भक्तिमय होना आवश्यक है । वही कार्य सिद्धि का महामन्त्र है। अरिहंतों में जो गुणानुराग स्वरूप भक्ति होती है वह अरहन्त भक्ति कहलाती है। ऐसी गुणयुक्त भक्ति ही सर्वकल्याणकारिणी होती है, जिन गुणों को प्राप्त करने का ध्येय है, वे समस्त गुण परमात्मा में पराकाष्ठा तक पहुँचे हुए हैं। उन गुणों का भक्तियुक्त चिन्तन समस्त दुःख, दारिद्र दौर्भाग्य, आपत्ति और विपत्ति संरक्षण रूप है। अरिहन्त, आचार्य बहुश्रुत और प्रवचन इनमें भावों की शुद्धता के साथ अनुराग रखना अरिहन्त भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति और प्रवचन भक्ति है.२ इन भक्तियों का तात्कालिक फल चित्त की प्रसन्नता, मस्तिष्क की सांत्वना और हृदय की पवित्रता है एवं परम्परा से उसका फल सदगति और मोक्ष है।
२६. सिद्धसेन दिवाकर कृत शक्रस्तव । २७. धवला-८/३. ४/८९-९०/४ २८. सर्वार्थसिद्धि-६/२४/३३९/४
राजवार्तिक-६/२४/१०/५३०/६ चारित्राचार-५१/३.५५/१ भावपाहुड टीका-७७/३२१/qn