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________________ १२८ / योग-प्रयोग-अयोग भक्तियोग का परिणाम (आवश्यकता) ... अध्यवसायों की विशुद्धि के बिना की जाने वाली भक्ति साधक को परिणाम की सफलता तक नहीं पहुंचा सकती है। अध्यवसायों की विशुद्धता से ही प्राणिधान अर्थात् चित्त की एकाग्रता हो सकती है । अतः "प्राणिधानं कृते कर्म, मन्येतीव-विपाकवत् ।" प्रणिधान द्वारा की जाने वाली क्रिया ही तीव्रविपाक याने उत्कट फलदायी होती है। किन्तु यह सब कुछ तभी होता है, जब साधक की भक्ति के प्रति रुचि हो। भक्तिपूर्वक रुचि को प्रीति अनुष्ठान भी कहते हैं। बिना प्रीति के भक्ति सिद्ध नहीं हो सकती अथवा स्थायी नहीं रह सकती। अतः अनुष्ठानों में भक्ति से प्रथम प्रीति को स्थान दिया गया है। अतः यहाँ भक्तियोग के विवेचन में प्रीतियोग को समझना बहुत आवश्यक है। प्रीति और भक्ति को बहुधा एक समझने की भ्रान्ति इसी से टूट सकती "प्रीति एवं प्रीति अनुष्ठान तथा भक्ति अनुष्ठान" जिसमें अधिक प्रयत्न हो और जिससे करने वाले का अधिक हित हो ऐसी प्रीति-रुचि होती है और अन्य प्रयोजनों को त्याग कर जिसे एकनिष्ठा से करते हैं, वह प्रीति अनुष्ठान है। विशेष गौरव (महत्त्व) के योग से बुद्धिमान पुरुष की अत्यन्त विशुद्ध योग वाली क्रिया प्रीति अनुष्ठानवत् होने पर भी उसे भक्ति अनुष्ठान कहते हैं। दोनों अनुष्ठान में अन्तर-भक्ति अनुष्ठान को विशेष रुचि के साथ किया जाने वाला अनुष्ठान प्रीति अनुष्ठान है, किन्तु भक्ति अनुष्ठान में साधक कुछ विशिष्ट अभ्युदयवाला होता है। यद्यपि आदर एवं महत्त्व प्रीति अनुष्ठान में भी होता है, किन्तु भक्ति अनुष्ठान में यह आदर और गौरव के साथ हृदय में अंकित हो जाता है। प्रीति में समान भाव होता है, उदाहरणार्थ एक पुरुष का अपनी पत्नी के प्रति स्नेह भाव प्रीति कहलाता है और माता के प्रति स्नेह भाव भक्ति कहलाता है। यह दोनों पात्र भिन्न हैं पुरुष का स्नेह भाव दोनों के प्रति है, वह दोनों का पालन-पोषण एवं रक्षण करता है, किन्तु दोनों के प्रति रहे हुए स्नेह-भाव में अन्तर है। एक के प्रति प्रीति है और दूसरे के प्रति भक्ति है। प्रीति में समर्पण भाव परस्पर रूपेण होता है। परन्तु भक्ति में समर्पण भाव एकपक्षीय एवं उच्चकोटि का होता है। यह तो हुआ लौकिक परिणाम, किन्तु भक्ति से साधक अलौकिक सिद्धि भी पाता है। श्री जिनभद्रगणि जी कहते हैं-जिनवर की भक्ति करने से पूर्व संचित कर्मी
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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