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• योग-प्रयोग-अयोग/ १२७
हो जाता है वह भक्तिवशात् हो जाता है। वादिराजमुनि ने भी इसी प्रकार भक्तियोग में संलीन होकर भक्ति की मस्ती में गाया है कि
त्वं सर्वेशः सकृय इति च त्वामुपेतो स्मि भक्त्याः ---- | त्यकर्तव्यं तदिह विषयेयदेव एव प्रमाणम् ।।१७ यहाँ साधक भक्तिपूर्वक परमात्मा को समर्पण हो जाता है। श्री सिद्धसेनदिवाकर के अनुसार श्री भक्ति का महत्व विलक्षण है जैसे
भक्त्या नते भयि महेश । दयां विधाय दुःखांकुरो दलनतत्परतां विधेहि।१८ प्रभु ! आप शरणागत प्रतिपालक हो, दयालु हो और समर्थ भी हो । अतः भक्तिभाव से विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे दुःखों को दूर करने के लिए तत्पर होंवें ।
समर्पण, आदरभाव एवं भक्ति से युक्त ऐसे साधक के विशिष्ट लक्षणों को अभिप्रेत करते हुए वे कहते हैं
भक्त्योल्लसत्युलकपक्ष्यदेहदेशाः । पाद्वयं तव विभो । मुवि जन्म भाजः।
अर्थात जिन्होंने अन्य काम को छोड़ दिये हैं और भक्ति से प्रकट हुए रोमांचों से जिनके शरीर का प्रत्येक अवयव व्याप्त है, ऐसे साधक भक्ति भाव में भावित हो जाते हैं। अतः इस क्रिया को अमृत क्रिया कहते हैं। भक्तियोग के लक्षणों में अमृत क्रिया का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। अमृत क्रिया के ऐसे लक्षण दर्शाते हुए एकीभाव स्तोत्र में कहा गया है।
आनन्दाश्रुस्नपितवदनं गदगदं चाभिजल्पन् यश्चायेत त्वयिदृढमनाः स्तोत्रमंत्रर्भवन्तम् । तस्याभ्यस्तादपि च सचिर्र देहवल्मीकमध्यानिष्कास्यते विविधविषमव्याधयः का देवयाः ॥२० अर्थात् भगवन् ! जो मनुष्य शुद्ध चित्त से आपकी भक्ति करता है उसके समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं।
१७. एकीभाव स्तोत्र श्लो. ११ १८. कल्याणमंदिर स्तोत्र श्लो. ३९ १९. कल्याणमंदिर स्तोत्र श्लो. ३४ २०. एकीभाव स्तोत्र श्लो. ३