SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग- प्रयोग- अयोग / ११९ अज्ञान का आवरण हटते ही स्व और पर का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होता है । अन्य व्यक्ति के शरीर में स्थित आत्मा को हम ज्ञान द्वारा ही प्रत्यक्ष कर सकते हैं। पदार्थ को जानने की, कार्य करने की, जीतने की, त्यागने की, भोगने की, ग्रहण करने की, छोड़ने की इत्यादि सर्व प्रवृत्ति में हेय और उपादेय का बोध ज्ञान द्वारा ही उद्भूत होता है । मैं ज्ञान के द्वारा अपना सुख, दुख का संवेदन करता हूँ, उसी तरह अन्य व्यक्ति के लिए भी ज्ञान और संवेदन होता है, अतः सिद्ध होता है कि ज्ञान आत्मा का गुण है। निश्चयपूर्वक प्रत्येक आत्मा में रहता है। इसलिए कहा जाता है कि यह ज्ञानवान है। इन्द्रियाँ पौद्गलिक है अतः पुद्गल निर्मित पदार्थों को ही देख सकती हैं, अतः इन्द्रिय द्वारा होने वाला ज्ञान परोक्ष ज्ञान माना जाता है और अतीन्द्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष माना जाता है। जब तक अज्ञान अवस्था होती है, इन्द्रियादि विषयों की मूर्च्छा छायी रहती है, बाह्य प्रवृत्ति विद्यमान रहती है, भौतिकता की रुचि जागृत रहती है, तब तक साधक अतीन्द्रिय ज्ञान की सत्ता को पाने में सफल नहीं रहता । शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श का कुहरा चारों ओर छाया हुआ रहता है। मन, वाणी और शरीर के आवर्त में उस अज्ञानी में जो भी प्रक्रिया होती है, स्पंदन होते हैं, संवेदना होती है, वह इन्द्रियों का, मन का, प्राण का, शरीर का बन्धन होता है। ज्ञान दृष्टि के उद्घाटन से ही सत्य उपलब्ध होता है। शुभ योग से ज्ञान की दिशा को गति मिलती है । ज्ञान की कसौटी अप्पणा सच्चमेसेज्जा - स्वयं सत्य की खोज करो। सत्य की खोज के लिए ज्ञान योग की आवश्यकता है। आज जो वैज्ञानिक यन्त्रों से खोज करता है, वही खोज ध्यानी अपने ज्ञान से करता है। ज्ञानयोग से चित्त की चंचलता स्थिर होती है, विकल्पों का जाल टूटता है और यथार्थ का साक्षात्कार होता है। अस्थायी मन ज्ञान को नहीं पा सकता । ज्ञान को पाने के लिए मन का स्थिरीकरण ही उपयुक्त है। जानने योग्य क्या है इसे खोजते खोजते ही उसका स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। जहाँ ज्ञाता ज्ञेय पर अपने ज्ञान का उपयोग लगाता है वहाँ ज्ञान ध्यान रूप हो जाता है। ज्ञान और ध्यान में कोई अन्तर नहीं। किसी एक ज्ञेय पर एकाग्र होना ही ज्ञानी के लिए ध्यान है । जानना और देखना - ज्ञाता - दृष्टा यह मेरा स्वभाव है, मैं सोचता हूँ, बोलता हूँ, मैं खाता हूँ ये क्रिया अवश्य हैं किन्तु स्वाभाविक नहीं हैं। जो प्रवृत्ति सांयोगिक होती है वह किसी न किसी अज्ञान का रूप लेकर ही आती है। आत्मा का स्वभाव जानना और
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy