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________________ ११८ / योग- प्रयोग - अयोग जाता है। अतः असंयमी की दृष्टि में जो हेय है वही संयमी की दृष्टि में उपादेय है। यही ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टि में अंतर होता है। कायवाड· मनः कर्मयोगः स आसवः ३ कायिक, वाचिक और मानसिक शुभाशुभ प्रवृत्ति योग कहलाती है और वही आस्रव हैं। अतः आस्रव और अनास्रव की प्रवृत्ति शुभ और अशुभ योग पर आश्रित है। आस्रव जन्य दुःख, धन, सत्ता और भोग्यपदार्थों के विषय में होते हैं। अत: अज्ञानी की दृष्टि में ये कर्मबन्ध के हेतु होने पर भी भौतिक सुख के हेतु होते हैं और वे ही पदार्थ विषय सुखों से पराङमुख ज्ञानी की दृष्टि में अध्यात्म चिंतन का विषय बनकर कर्म निर्जरा का हेतु बन जाता है। किसी भी वस्तु, परिस्थिति, घटना, प्रवृत्ति और भावना व्यक्ति के सम्बन्ध में समान रूप से परिणमम नहीं होती हैं। दो व्यक्तियों की भी योग्यता और रुचि समान नहीं मिल पाती जो परिस्थिति ज्ञानी के ज्ञान में सर्व हितकारी है, वही अज्ञानी के लिए स्वार्थ भाव में होती है। इस प्रकार सर्वात्मभाव देहभाव में, वैराग्यभाव भोग प्राप्ति में, और त्यागभाव रागभाव में बदल जाता है । आचार्य अमितगति ने योगसार में ज्ञानी के लिए ठीक ही कहा है कि जिस इन्द्रिय विषय के सेवन से अज्ञानी अनंत भव संसार भोगता है वहाँ ज्ञानी उसी विषयों के ज्ञान से अन्तर्मुहूर्त मात्र में संसार मुक्त होते हैं ४ अज्ञान का आवरण टूटने पर ज्ञान प्रज्ज्वलित होता है और भ्रम टूट जाता है। कोई आग्रह अवशेष नहीं रहता । अवशेष रहता है यथार्थ, केवल सत्य | ज्ञान दृष्टि यथार्थ की एक धारा है सम्यग्दर्शन और दूसरी धारा है सम्यग्ज्ञान ; ज्ञान आत्मा का गुण है। वह गुण के अभाव में नहीं रह सकता। जहाँ गुणी है वहीं गुण परिलक्षित होता है, अतः जहाँ गुण की अनुभूति होती है वहाँ गुणी का अस्तित्व अवश्य होता है । क्योंकि गुण - गुणी का तादात्म सम्बन्ध है । मैं जान लिया, मैं जानता हूँ या मैं जानूँगा। इस प्रकार जो तीनों काल में "मैं” का प्रयोग हुआ है वह आत्मा है और जान लिखा, जानता हूँ या जानूँगा यह प्रयोग आत्मा का गुण ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है। ३. तत्वार्थ सूत्र ६ / १, २ ४. योगसार- ६/१८
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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