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________________ १२० / योग- प्रयोग - अयोग देखना है, किन्तु जब वह स्वभाव अन्य के संयोग की अपेक्षा रखता है, तब स्वभाव विभाव में तथा ज्ञान अज्ञान में परिणत हो जाता है। मन का कर्म, वचन का कर्म, शरीर 'का कर्म अस्वाभाविक है। जहाँ अस्वाभाविकता है वहाँ बंधन है, ऐसा कार्य कारण का नियम है। कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं होता है । बन्धन भी कारण के बिना नहीं होता है। जहाँ अस्वाभाविक प्रवृत्ति होगी वहाँ बन्धन होगा, वैभाविक क्रिया होगी वहाँ अज्ञान होगा ही । जहाँ योग और बन्धन दोनों एक हो जाते हैं वहाँ हमारी स्वाभाविकता अस्वाभाविक हो जाती है। अतः जहाँ योग है वहाँ बन्धन है, जहाँ बन्धन है वहाँ योग है। एक को देखकर दूसरे को भी जाना जाता है जैसे जहाँ सूर्य है वहाँ प्रकाश है, जहाँ प्रकाश है वहाँ सूर्य है। हमारी कोई भी प्रवृत्ति हो फिर वह मन सम्बन्धी हो, वचन सम्बन्धी हो या काय सम्बन्धी हो, प्रवृत्ति प्रवृत्ति है, बन्धन बन्धन है। प्रवृत्ति है तो बन्धन है ही। बन्धन है तो प्रवृत्ति का क्रम है ही। दोनों को मुक्त कराने वाला यदि कोई है तो वह है ज्ञान। अकेला ज्ञान कुछ नहीं कर सकता अतः ज्ञान योग से प्रवृत्ति और बन्धन का विवेक ज्ञान जागृत होता है । ज्ञानयोग से प्रवृत्ति निवृत्ति में रूपांतरित होती है। पुनरावृत्ति नहीं होती । प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। जो भी कार्य करो समाप्त होता है किन्तु कार्य की प्रतिक्रिया समाप्त नहीं होती, ध्वनि समाप्त होती है किन्तु प्रतिध्वनि समाप्त नहीं होती । इसी प्रकार बंध समाप्त होता है किन्तु अनुबंध समाप्त नहीं होता। बन्ध योग से होता है और अनुबंध योग से जमे हुए संस्कार से चलता है, इस प्रकार क्रिया और प्रतिक्रिया रूप तेरहवें गुणस्थान संयोगी केवली तक चलता रहता है। इस अवस्था में साधक ज्ञानयोगी कहा जाता है । योग का मतलब है चित्त वृत्ति का निरोध, इस मार्ग पर चलने वाला स्वेच्छा से आगे बढ़ सकता है। जब वृत्तियाँ तीव्रता का रूप धारण करती हैं। मन उतना ही विक्षिप्त रहता है । इस विक्षिप्त मन को कैन्द्रित करने के लिए एकाग्रता विशेष आवश्यक है। जैसे सूर्य के प्रकाश को बादल आवृत्त करते हैं, वैसे ही वृत्तियाँ ज्ञान पर सवार हो जाती हैं । किन्तु बादल सम्पूर्ण सूर्य को आवृत्त नहीं कर पाते। वैसे ही वृत्तियाँ ज्ञान पर आवरण जरूर करती हैं, फिर भी सम्पूर्ण ज्ञान आवृत्त नहीं होता उसकी कोई न कोई किरण प्रज्ज्वलित रहती है अन्यथा जड़ और चैतन्य की भिन्नता प्रतीत नहीं हो पायेगी ।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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