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________________ योग-प्रयोग-अयोग/१०७ द्वारा शरीर को दृढ़ बनाना और फिर खेचरी आदि मुद्राओं के द्वारा उसकी चंचलता को कम कर स्थिरता का अभ्यास करना यह हठयोग की दो मुख्य भूमिकाएँ हैं । आसन साधना से शरीर को सुदृढ़ बनाना, मुद्राओं द्वारा स्थिरता का अभ्यास करना, प्रत्याहार द्वारा इन्द्रिय निग्रह करना, प्राणायाम द्वारा श्वास प्रक्रिया पर अधिकार जमाना इत्यादि का प्रयोग ध्यान और समाधि के अभ्यास काल में अनिवार्य हैं । अतः साधकों के लिए अधिक आसान प्रयोग अनुपयुक्त माना है। उन्होंने आसन बहुत कम बताये हैं और जो हैं वह सिर्फ साधना के उपयोग में आने वाले हैं। __आगमों में जिन आसनों की अधिक चर्चा आती है वे आसन इस प्रकार हैं। ठाणट्ठिइए-कायोत्सर्ग काय + उत्सर्ग इन दो शब्दों के संयोग से कायोत्सर्ग बना है। काय-शरीर, उत्सर्ग-विसर्जन, त्यांग, विवेक इत्यादिकायोत्सर्ग बाह्य और आभ्यंतर दोनों प्रकार से होता है। बाह्य-शारीरिक तनाव से मुक्ति, आभ्यंतर-दैहिक ममत्व से मुक्ति। ___ बाह्य प्रवृत्तियों से चंचल शरीर अनेक द्वंद्वों का शिकार बनता है। इन द्वंद्वों द्वारा अनेक प्रकार के तनाव उत्पन्न होते हैं । तनाव से अनेक ग्रंथियाँ वृत्तियाँ उत्तेजित हो जाती हैं। अनेक प्रकार की दुविधाएँ और विषमताएँ उत्पन्न होती हैं। इन विषमताओं का शमन बाह्य कायोत्सर्ग से स्थिर होता है। साधना काल में बाह्य वृत्तियों को स्थिर करके आंतरिक समता पर अग्रसर होकर परिसह उपसर्ग पर विजय पाना है। कषाय शमन की मिशाल समत्वयोग है। आंतरिक स्थिरता से यथार्थता की अनुभूति होती है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा के संक्लेशों का विसर्जन होता है और मन, वचन, काय योग का निरोध होता है। हेमचन्द्राचार्य ने इसे कायोत्सर्गासन कहा है। शरीर के ममत्व का त्याग करके दोनों भुजाओं को नीचे ल एका कर शरीर और मन को स्थिर करना "कायोत्सर्गासन' है। शरीर की ममता ही सबसे बड़ा बन्धन है। कायोत्सर्ग में साधक-राग-द्वेष से रहित होकर अन्तर्मुखी हो जाता है। आत्मचिंतन में गहरा डूब जाता है। तब उसे शरीर की सुध भी नहीं रहती है। शरीर को मच्छर काटते हैं या कोई चन्दन आदि का शीतल लेप कर देता है किसी भी स्थिति में वह शरीर की चिंता से चलित नहीं होता। कायोत्सर्ग प्रायः जिन मुद्रा (दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अंतर रखकर सीधे सम अवस्था में खड़े रहना-जिन मुद्रा है) में ही किया जाता है। ८. योगशास्त्र ४/३३
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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