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________________ १०६ / योग- प्रयोग-अयोग ध्यान करना, पडिमा धारण करना, वीरासन करना, निषद्या स्वाध्याय आदि के लिए पालथी मार कर बैठना, दंडवत होकर खड़े रहना, लगड-लकड़ी की भांति खड़े रहकर ध्यान करना। उववाई सूत्र में इन्हीं भेदों को विस्तार के साथ बताकर चौदह भेद कर दिये गये हैं-जो इस प्रकार हैं १. ठाणट्ठिइए-कायोत्सर्ग करे। २. ठाणाइए-एक स्थान पर स्थित रहे। ३. उक्कुडु आसणिए-उत्कुटुक आसन से रहे। ४. पडिमट्ठाई-प्रतिमा धारण करें । ५. वीरासणिए-वीरासन करें । ६. नेसिज्जे-पालथी लगाकर स्थिर बैठे। ७. दंडाइए-दंडे की. भाँति सीधा सोया या बैठा रहे। ८. लगंडसाई-(लगण्डशायी) लक्कड (वक्रकाष्ठ) की तरह सोता रहे। ९. आयावए-आतापना लेवे। १०. अवाउडए-वस्त्र आदि का त्याग करे। ११. अकंडुयाए-शरीर पर खुजली न करे । १२. अणिठुहए-थूक भी नहीं थूके । १३. सव्वगायपरिकम्मे-सर्व शरीर की देखभाल (परिकर्म) से रहित रहे । १४. विभूसाविप्पमुक्के-विभूषा से रहित रहे । कायक्लेश रूप आसन सिद्धि में सर्वप्रथम कायोत्सर्ग की साधना पर बल दिया है। इन आसनों के अभ्यास से चित्त अपनी स्वाभाविक चंचलता का परित्याग करके एकाग्रता की ओर अग्रसर होता है। परन्तु इतना स्मरण रहे कि ध्यान में प्रवृत्त होने वाले साधक को जिस आसन से किसी प्रकार की व्यग्रता न हो और मन की शान्ति बनी रहे वही आसन उसके लिए उपयोगी है। जैन योग में आसनों की साधना का प्रयोग कायक्लेश तप में माना गया है, कायाक्लेश तप से शारीरिक कष्ट की अपेक्षा सहिष्णुता, स्थिरता एवं दृढ़ता का संवर्धन होता है। हठयोग की सात भूमिकाओं में शरीर को स्थिरता एवं दृढ़ता प्रदान करने के लिए आसन एवं मुद्राओं का अभ्यास बताया गया है। विविध आसन आदि के ७. उववाई समवसरण अधिकार तप वर्णन
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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