________________
तृतीय परिवर्त ज्ञाताधर्मकथांग का भौगोलिक विश्लेषण
व्यक्ति के जीवन पर स्थान विशेष की भौगोलिक स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। संस्कृति की दशा और दिशा को निर्धारित करने वाला महत्वपूर्ण घटक है, भौगोलिक स्थिति। शिक्षा, अर्थव्यवस्था, राजनैतिक स्थिति, सामाजिक स्थिति आदि विभिन्न घटक भौगोलिक परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।
ज्ञाताधर्मकथांग में तत्कालीन भौगोलिक स्थिति के विविध रूपों का अनावरण हुआ है। विविध दृष्टांतों के माध्यम से उस युग में विद्यमान द्वीप, पर्वत, नगर, अधोलोक, देवलोक, नरक, नदियाँ, ग्राम, उद्यान-वन, वनस्पति आदि का उल्लेख किया गया है। तत्कालीन भौगोलिक स्थिति से सम्बद्ध कुछ पहुलओं पर विचार यहाँ इष्ट हैसंसार
ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसार चतुर्गति रूप सांसारिक जीवन-चक्र को संसार कहते हैं।' हिन्दू धर्मकोश में संसरण गति अर्थात् जो गतिमान अथवा नश्वर है उसे संसार कहा है। नैयायिकों के अनुसार मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न वासना को संसार कहते हैं (संसारश्च मिथ्याधीप्रभवा वासना)। मर्त्यलोक अथवा भूलोक को सामान्यतः संसार कहते हैं। संसरण करने अर्थात् जन्म-मरण करने का नाम संसार है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार- 'संसरण संसार परिवर्तनमित्यर्थ' अर्थात् संसरण करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिवर्तन है। राजवार्तिक के अनुसार, "कर्म के विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है।"4 नरक
ज्ञाताधर्मकथांग में बुरे कार्य करने वाले अर्थात् पापकर्म करने वाले जीव को नरक में उत्पन्न होना बताया है। विजय चोर एवं नागश्री ब्राह्मणी अपने कुकर्मों के कारण नरक में उत्पन्न हुए। उन्होंने वहाँ अनेक प्रकार के (गंभीर, लोमहर्षक, भयावह, त्रास-जनक, अत्यन्त अशुभ) कष्ट अर्थात् वेदना को अनुभव किये। प्रचुर रूप से पापकर्मों के फलस्वरूप अनेक असह्य दुःखों को भोगने वाले जीव विशेष नारकी कहलाते हैं। उनकी गति को नरक गति कहते हैं और उनके रहने के स्थान नरक कहलाते हैं, जो शीत, उष्ण, दुर्गन्ध आदि असंख्य
69)