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द्वितीय परिवर्त
संस्कृति के तत्त्व एवं ज्ञाताधर्मकथांग
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भारतीय संस्कृति अनादि - अनन्त रही है । इसके इतिहास के ओर-छोर पकड़ना और उसे शब्द - चित्र का रूप देना अत्यन्त दुष्कर कार्य है । मानव और संस्कृति का सम्बन्ध चोली-दामन स्वरूप है । इनको एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है।
अपनी शैशवावस्था में कंद-मूल-फल खाने वाला मानव शनै: शनै: भोजन पकाकर खाने लगा और फिर आज वह युग भी आ गया है कि मानव अंतरिक्ष पर बसने की तैयारी करने लगा है। प्रारम्भ में मानव अपने जीविकोपार्जन के लिए शिकार पर निर्भर था, फिर उसने पशुपालन और कृषि कार्य प्रारम्भ किया और आज वह व्यवसाय में भी रत है। मानव के विकास की कहानी का प्रवाह क्रमशः शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक स्तरों की ओर अग्रसर रहा है ।'
मानव ने भौतिक उन्नति के साथ-साथ अपने धर्म तथा दर्शन को भी समुन्नत करने का प्रयास किया है। उसकी जिज्ञासा ने उसके विकास मार्ग को प्रशस्त किया। सौन्दर्य की खोज में उसने संगीत, साहित्य और कला के विकास पर भी ध्यान दिया। जीवन को सुख-सुविधापूर्वक चलाने के लिए उसने अनेकानेक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संगठन बनाए । इस तरह मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती चली गई। इसमें मुख्य रूप से धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला, सामाजिक तथा राजनीतिक परिवेश, अर्थव्यवस्था और शिक्षा आदि को समाविष्ट किया जा सकता है। इस तरह मानव संस्कृति का स्वरूप अनवरत निखरता और परिष्कृत होता जा रहा है ।2
जैन धर्म ने मानव संस्कृति को नवीन रूप ही नहीं दिया वरन् उसके अमूर्त भाव तत्त्व को प्रकट करने के लिए सभ्यता का विस्तार भी किया। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव इस मानव संस्कृति के सूत्रधार बने । उनसे पूर्व युगलियों का जीवन कल्पवृक्षों के आधार पर चलता था।
प्रकृति से सरल और भद्र होने के कारण मानव की कर्म और कर्त्तव्य की भावना सुषुप्त थी । उस समय के लोग कृषि और व्यवसाय से अपरिचित थे । उनमें सामाजिक चेतना और लोक व्यवहार के अंकुर नहीं फूटे थे । नाभिनन्दन
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