________________
उपसंहार तथा तीर्थंकर का स्वरूप भी इसी अध्याय में विवेचित है।
ज्ञानमीमांसा के रूप में पाँचों ज्ञानों का संक्षिप्त विवेचन करते हुए जातिस्मृति ज्ञान की व्याख्या भी ज्ञाताधर्मकथांग के विशेष संदर्भ में की गई है।
नवम अध्याय के तृतीय उपशीर्षक 'आचार मीमांसा' में श्रावकाचार के रूप में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत रूपी बारह व्रतों का उल्लेख किया गया है। इस उपशीर्षक में श्रमणोपासक श्रावक की चर्चा करते हुए उसे आध्यात्मिक ऊँचाइयों की ओर बढ़ते हुए दर्शाया गया है। साथ ही श्रमणाचार की कठोर चर्या के रूप में दीक्षा, वस्त्र, आहार, निवास, पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, षडावश्यक, बाईस परीषह, बारह भिक्षु प्रतिमाएँ, प्रतिलेखन, ब्रह्मचर्य की नववाड़, शल्य, तप व उसके भेद, अनुप्रेक्षा आदि का संक्षिप्त विवेचन इसमें किया गया है।
कर्ममीमांसा का सांगोपांग चित्रण तुम्बे के उदाहरण द्वारा किया गया है। पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को भी कर्म के संदर्भ में व्याख्यायित किया गया है। इस अध्याय में जैनेत्तर धर्म-दर्शन की भी कतिपय विवेचना की गई है।
प्रस्तुत कृति इस विषयक मेरे द्वारा विद्या वाचस्पति की उपाधि हेतु प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का प्रकाशन है। प्रस्तुत ग्रंथ प्राचीन भारतीय संस्कृति के सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, राजनैतिक, शैक्षिक, कला, भौगोलिक व आर्थिक अवदानों को स्पष्ट कर सकेगा, जिससे हमारी पुरातन और सनातन संस्कृति को नवजीवन मिलेगा। यदि प्रस्तुत कृति से प्रेरणा पाकर इस जगत का एक कदम भी हमारी सांस्कृतिक विरासत के सरंक्षण-संवर्द्धन की दिशा में आगे बढ़ता है तो मैं अपने प्रयास को सफल मानूंगी।
335