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________________ ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन (iii) परिवर्तना पठित पाठ को अनेक बार दुहराना, जिससे पाठ स्थिर होता है एवं पाठक को एक-एक शब्द के समानार्थी अनेक शब्दों का ज्ञान होता है। (iv) अनुप्रेक्षा सूत्रार्थ का चिन्तन एवं मनन करना अनुप्रेक्षा तप है। (v) धर्मकथा प्राप्त ज्ञान को प्रवचन द्वारा व्यक्त करना धर्मकथा है। 5. ध्यान तप चित्त की एकाग्रता ही ध्यान तप है। गमन, भोजन, शयन और अध्ययन आदि विभिन्न क्रियाओं में भटकने वाली चित्तवृत्ति को एक क्रिया में रोक देना 'निरोध' है और यही निरोध ध्यान कहलाता है। ध्यान के चार भेद हैं(i) आर्तध्यान संयोग-वियोग, अनिष्ट एवं सांसारिक क्लेशों का मनन करना आर्तध्यान है। ज्ञाताधर्मकथांग में धारिणी अपने पुत्र से दीक्षा की बात सुनकर आर्तध्यान में लीन हो जाती है ।272 (ii) रौद्रध्यान हिंसा से सम्बन्धित विचारों का ध्यान रौद्रध्यान है। (iii) धर्मध्यान एकाग्र होकर स्वाध्याय करना तथा धर्म का चिन्तन करना ही धर्मध्यान है। (iv) शुक्लध्यान शुद्ध आत्म-तत्त्व का ध्यान करना शुक्लध्यान है। 6. व्युत्सर्ग/कायोत्सर्ग व्युत्सर्ग का अर्थ है- त्याग। वह दो प्रकार का है- बाह्य और आभ्यन्तर। शयन करने, बैठने, खड़े होने में व्यर्थ की शारीरिक चेष्टाओं का त्यागकर शरीर को स्थिर करना बाह्य व्युत्सर्ग तप है और क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व आदि आभ्यन्तर दोषों की निवृत्ति आभ्यन्तर व्युत्सर्ग है। इसे कार्योत्सर्ग नाम से भी अभिहित किया जाता है। शरीर को स्थिर रखकर ध्यान में लीन होने से साधक अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित योग्य अतिचारों का विशोधन करता है। 311
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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