________________
ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन 3. निदान शल्य
भावी भोगों की आकांक्षा से व्रताचरण या तपश्चरण करना और उसमें ही दत्तचित्त रहना निदानशल्य है। ज्ञाताधर्मकथांग में सुकुमालिका आर्या ने अपने तप, नियम और ब्रह्मचर्य के फल के रूप में पाँच पतियों का निदान किया।53
ज्ञाताधर्मकथांग में मेघमुनि ने इन तीनों शल्यों से रहित होकर समाधिमरण का वरण किया।254
___ शल्य मनुष्य के मन में आकुलता, तनाव और कुण्ठा उत्पन्न करता है। निःशल्य व्यक्ति का ही व्रताचरण यथार्थ होता है, अतः इन तीनों शल्यों से रहित होकर ही व्रताचरण करना चाहिए- "निशल्यो व्रती" (तत्त्वार्थसूत्र 7/18), यही व्रती का लक्षण है।
तप
इच्छा के निरोध को तप कहते हैं। ऐहिक आकांक्षाओं से ऊपर उठकर कर्मक्षय के लिए देह, इन्द्रिय विषयों की प्रवृत्ति और मन को रोककर उन्हें तपाना तप है। तप वही है जिसमें विषयों का निग्रह हो। तप के भेद
तप के बारह भेद हैं। अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रस परित्याग, काया क्लेश, प्रतिसंलीनता- ये छः बाह्य तप हैं। बाह्य द्रव्यों के आलम्बनपूर्वक होने तथा बाहर प्रत्यक्ष दिखने के कारण इन्हें बाह्य तप कहते हैं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग- ये छः भेद आभ्यन्तर तप के हैं। मनोनिग्रह से सम्बन्ध होने के कारण इन्हें आभ्यन्तर तप कहते हैं। बाह्य तप भी आभ्यन्तर तप की अभिवृद्धि के उद्देश्य से ही किए जाते हैं। आभ्यन्तर तप साध्य हैं, बाह्य तप उनके साधक हैं। I. बाह्य तप
बाह्य तप छः प्रकार का होता है। बाह्य तप सामान्यतया शरीर की बाह्य क्रिया से सम्बद्ध होता है। वस्तुतः बाह्य का उद्देश्य आभ्यन्तर तप के सम्यक् पालन हेतु परिस्थिति उत्पन्न करना है। सर्वप्रथम मुनि अपनी बाह्य शारीरिक क्रियाओं को संयमित करता है, तत्पश्चात् वह अपने आभ्यन्तर को संयमित एवं परिशुद्ध करने का प्रयत्न करता है।
306