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________________ काल की दृष्टि से प्रतिक्रमण के भेद 234 कल की दृष्टि से प्रतिक्रमण के पाँच प्रकार बताए गए हैं- दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक 1235 क. दैवसिक- दिन के अंत में किए जाने वाला प्रतिक्रमण दैवसिक है । रात्रिक- रात्रि के अंत में किया जाने वाला प्रतिक्रमण । रात्रि में लगे हुए दोषों की आलोचना करना । ख. पाक्षिक- पक्ष (पन्द्रह दिन) के अंत में पापों की आलोचना करना । चातुर्मासिक- चार माह के पश्चात् कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा, आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन चार माह में लगे हुए दोषों की आलोचना करना । सांवत्सरिक- आषाढ़ी पूर्णिमा के 49वें या 50वें दिन वर्ष भर में लगे दोषों का प्रतिक्रमण करना। यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि जब हम प्रतिदिन प्रातः - सायं नियमित प्रतिक्रमण करते हैं तो फिर पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की क्या आवश्यकता है ? समाधान है- प्रतिदिन मकान की सफाई करते हैं तथा पर्व आदि अवसरों पर विशेष रूप से सफाई की जाती है। वैसे ही प्रतिदिन प्रतिक्रमण में अतिचारों की आलोचना की जाती है किन्तु पर्व के दिनों में विशेष रूप से जागरूक रहकर जीवन का निरीक्षण-परीक्षण और पापों का प्रक्षालन किया जाना आवश्यक है । कायोत्सर्ग- शरीर के ममत्व को त्यागकर पंच परमेष्ठियों का स्मरण ग. घ. ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन रहता है। साथ ही प्रतिक्रमण में वह प्रत्याख्यान ग्रहण करता है जिससे भावी दोषों से भी बच जाता है । ज्ञाताधर्मकथांग में मुनि मेघकुमार 224, धन्य सार्थवाह 225, थावच्चापुत्र, पंथकमुनि शैलक 226, मल्ली भगवती 227, पोट्टिला 228, धर्मरूचि अणगार 229, धन्य 230, पाण्डव, द्रौपदी 231, पुण्डरीक 232 आदि संयम अंगीकार करने वाले सभी पात्र जब-जब दोष उत्पन्न होता है उस समय और जीवन के अंतिम समय में, व्रतों में हुई स्खलनाओं के लिए, आलोचना-प्रतिक्रमण करते हैं लेकिन सुकुमालिका व कालि आदि उपर्युक्त प्रसंग उपस्थित होने पर भी प्रतिक्रमण नहीं करती हैं 1223 ड. 5. 299
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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