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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन मुग्ध होता है वह इस लोक में बहुत श्रमण - श्रमणियों, श्रावक-श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र होता है 221 और जो निर्ग्रन्थ इनमें आसक्त नहीं होता वह इस संसार अटवी को पार कर जाता है, सुखी हो जाता है । 222 स्पष्ट है कि इन्द्रियों और कषायों के वश में रहने वाला साधु निश्चित ही अपने संयम से भ्रष्ट हो जाता है। उसका ज्ञान, दर्शन और चारित्र निरर्थक हो जाता है । इन्द्रिय संयमी होना साधु का प्रधान लक्षण है अन्यथा वह संयम और आचार से पतित हो जाता है। षडावश्यक अवश्य करने योग्य क्रियाएँ आवश्यक कहलाती हैं। आवश्यक छ: हैं:सामायिक, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग । 1. सामायिक - सम की आय करना अर्थात् समस्त प्राणियों के प्रति समता धारणकर आत्मकेन्द्रित होना सामायिक है । इसे समता भी कहते हैं । चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का स्तवन करना स्तुति है । अरिहन्त, सिद्ध एवं आचार्यादि को मन, वचन, काय से प्रणाम करना वंदना है । 2. स्तुति - 3. वन्दना 4. प्रतिक्रमण - प्रतिक्रमण का अर्थ है- पुनः लौटना । अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण करके अपनी स्वभाव दशा से निकलकर विभाव दशा में चले जाने पर पुनः स्वभाव सीमाओं में प्रत्यागमन करना प्रतिक्रमण है- जो पाप मन, वचन और काया से स्वयं किए जाते हैं, दूसरों से करवाए जाते हैं और दूसरों के द्वारा किए हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापों की निवृत्ति हेतु आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है शुभ योगों से अशुभ योगों में गए हुए अपने आपको पुनः शुभ योगों में लौटा लाना प्रतिक्रमण है 1223 - प्रतिक्रमण त्रैकालिक परिशुद्धि की विधि है । अतीत में लगे हुए दोषों की आलोचना तो प्रतिक्रमण में की जाती है। वर्तमान काल में साधक संवर साधना में लगे रहने से पापों से निवृत्त 298
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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