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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन कहते हैं तथा वस्त्राभूषण आदि बार-बार उपयोग में आने वाली सामग्री उपभोग कहलाती है। 37 भोग-उपभोग के साधनों की जीवनपर्यन्त के लिए मर्यादा करना भोगोपभोग परिमाणव्रत कहलाता है।'38 दूसरे शब्दों में कहें तो इन वस्तुओं की अनन्तता को समाप्त कर व्यक्ति उनकी निश्चित मर्यादा स्थित कर ले, यही उपयोग - परिभोग परिमाणव्रत है । उपभोग - परिभोग- परिमाणव्रत के पालन में कुछ दोष हो जाने की आशंका रहती है, अतः इनके प्रति श्रावक को जागरूक रहना चाहिए। ये दोष या अतिचार अग्रांकित हैं- सचित्ताहार, सचित्त प्रतिबद्धाहार, अपक्वाहार, दुष्पक्वाहार, तुच्छोषधिभक्षण | (3) अनर्थदण्ड विरमणव्रत इसके दो वाच्यार्थ हैं- निष्प्रयोजन हिंसा से दूर होना और अनर्थकारी पाप से दूर होना। एक श्रावक पर यह दायित्व आता है कि वह बिना प्रयोजन कोई गलत काम नहीं करे। प्रयोजनवश कोई उपाय आचरण करना पड़े तो उसमें भी उस प्रवृत्ति से अपना बचाव करे, जो किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के लिए अनिष्ट अथवा अहितकर हो । शिक्षा यहाँ 'शिक्षा' शब्द के लोक प्रचलित अर्थ के स्थान पर विशिष्ट अर्थ प्रकट हुआ है, यहाँ शिक्षा का अर्थ है, अभ्यास । वह क्रियाकलाप, जिसकी व्यक्ति द्वारा नित्यप्रति पुनरावृत्ति की जाती है, शिक्षा कहा गया है। शिक्षाव्रत चार हैंसामायिकव्रत, देशावकाशिकव्रत, पौषधोपवासव्रत, अतिथि संविभागव्रत। (1) सामायिकव्रत आत्मा के गुणों का चिन्तन कर समता का अभ्यास करना सामायिक है । शब्द संरचना के अनुसार यह दो पदों- 'सम' और 'आय' का योग है। सम का अर्थ है- समता का भाव और आय का आशय है- लाभ या प्राप्ति । वास्तव में सामायिक ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा कर्ता को समभाव का लाभ होता है। इसमें दोष या पापपूर्ण प्रकृति का त्याग एवं धर्ममय प्रवृत्तियों का आचरण होता है । अन्य व्रतों की भांति सामायिक के भी पाँच अतिचार हैं- मनोदुष्प्रणिधान, 284
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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