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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन
___ व्यंतर जाति के देव मनुष्य के अधिक निकट सम्पर्क में हैं। ये अपने आवासों के अलावा पर्वतों, गिरि-कंदराओं, समुद्रों आदि स्थानों में रहते हैं। इन्हें प्रसन्न करके मनुष्य अपने इष्ट को प्राप्त करता है लेकिन जब ये कुपित हो जाते हैं तो अनिष्ट भी कर डालते हैं। माकंदीपुत्र जिनरक्षित और जिनपालित रत्नद्वीप की देवी के आदेश की अवहेलना कर दक्षिण वन में चले जाते हैं। देवी यह जानते ही कुपित हो उन्हें मारने को उद्यत हो जाती है। जिनरक्षित देवी के हाथों मारा जाता है।
ज्ञाताधर्मकथांग से यह भी पुष्टि होती है कि विशेष रूप से उनका आह्वान कर सहयोग भी लिया जा सकता है। महारानी धारिणी के मन में गर्भ के प्रभाव से अकाल-मेघ सम्बन्धी इच्छा (दोहद) उत्पन्न होती है। इस दोहद की संपूर्ति के लिए अभयकुमार विशिष्ट विधिपूर्वक तीन दिन तक अपने मन में मित्रदेव का चिन्तन करते हुए अनुष्ठान करता है। मित्रदेव अपने ज्ञान से जानकर अपने दिव्य रूप में प्रस्तुत हो अभय की इच्छा जानते हैं और उसी के अनुरूप वातावरण उत्पन्न कर महारानी के दोहद की पूर्ति करते हैं।" इसी विधि से श्रीकृष्ण भी सुस्थित देव को लवण समुद्र में मार्ग देने अर्थात् उसका पार करने की इच्छा से याद करते हैं और सुस्थित देव उसी रूप में उनकी सहायता करता है। इसी प्रकार वचन प्रतिबद्धता के कारण पोट्टिलदेव तैतलिपुत्र को प्रतिबोध देने के लिए उपस्थित होते हैं और उसे धर्म में प्रतिष्ठित करके चले जाते हैं।" इसी प्रकार दर्दुरदेव एवं काली देवी भी अपने दिव्य परिवार के साथ भगवान महावीर को वंदना करने के लिए उपस्थित होते हैं तथा अपना नाम-गोत्र बताकर और अनेक प्रकार के नाटक दिखाकर लौट जाते हैं।
तीर्थंकर
तीर्थंकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। ये सब प्रकार के दोषों से रहित होते हैं। ज्ञाताधर्मकथांग में कहा गया है कि वे धर्म की आदि करते हैं और तीर्थ की स्थापना करते हैं। तीर्थ' के अंतर्गत साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चार प्रकार के व्रतियों का समावेश होता है। मानव जीवन की ये चार अवस्थाएँ मुक्ति-प्राप्ति में सहायक होती हैं।
तीर्थंकर अपनी माता के गर्भ में जिस दिन प्रवेश करते हैं उस रात उनकी
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