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ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन है। यह अखण्ड रूप से सारे संसार में व्याप्त है।
अधर्म
जीव और पुद्गल द्रव्य को ठहरने यानी स्थिति में सहायता करने वाला द्रव्य विशेष अधर्म कहा जाता है। यह अखण्ड द्रव्य है, इसके असंख्यात प्रदेश हैं, यह सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है। आकाश
___ जो द्रव्य, पुद्गल, धर्म और अधर्म को स्थान देता है वह आकाश है। यह सर्वव्यापी, एक और अमूर्त है। पुद्गल
जिस पदार्थ में स्पर्श, रस, गंध, रूप तथा शब्द पाया जाए उसे पुद्गल कहते हैं। पुद्गल परिणामी नित्य होता है। इस तथ्य की पुष्टि करने वाला प्रसंग ज्ञाताधर्मकथांग में आया है। अमात्य सुबुद्धि राजा जितशत्रु से कहता है
एवं खलुसामी! सुब्भिसद्दा वि पुग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा वि पोग्गला सुन्भिसद्दा परिणमंति। इस प्रकार स्पष्ट है कि पुद्गल की अमनोज्ञता, मनोज्ञता आदि पर किसी प्रकार के विस्मय का अवकाश नहीं।
__ अमात्य सुबुद्धि परिखा के जल के संदर्भ में प्रयोग व स्वभाव से परिणमन स्वीकार करता है। वह विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा उस दुर्गन्ध वाले अमनोज्ञ जल को स्फटिकमणि के समान मनोज्ञ तथा आस्वादन करने योग्य बना देता है। उस उदक-रत्न को पान कर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। राजा द्वारा पूछने पर अमात्य सुबुद्धि ने कहा- 'हे स्वामी! यह वही पानी है।'
___ यहाँ दुर्गन्धयुक्त पानी का विनाश, सुरभियुक्त जलरत्न की उत्पत्ति व पानी पदार्थ की ध्रुवता स्पष्ट होती है। काल
परिवर्तन का जो कारण है उसे काल कहा जाता है। 3. पुण्य _ 'पुणति-शुभी करोति पुनाति वा पवित्री करोत्यात्मानम् इति पुण्यम्' अर्थात् जो आत्मा को शुभ करता है अथवा उसे पवित्र बनाता है, वह शुभ-कर्म है। ठाणांग में पुण्य नौ प्रकार के बताए गए हैं- अन्न पुण्य, पान पुण्य, वस्त्र पुण्य, लयन पुण्य, शयन पुण्य, मन पुण्य, वचन पुण्य, काय पुण्य तथा नमस्कार
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