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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन रूपी I पुद्गल (स) द्रव्य अरूपी जीव धर्म अधर्म आकाश काल समग्र दृष्टि से कहा जा सकता है कि द्रव्य मूलतः दो ही हैं- जीव तथा अजीव । नव तत्त्वों की अवधारणा के अनुसार इनका विवेचन इस प्रकार है1. जीव चेतन जीव का स्वरूप है और उपयोग उसका लक्षण है। वह सुख-दुःख के प्रति संवेदनशील होता है। अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्त्ता - भोक्ता वह स्वयं है । जीव अरूपी है। ज्ञाताधर्मकथांग में जीव के लिए प्राण, भूत, जीव व सत्व शब्दों का प्रयोग किया गया है। तीन विकलेन्द्रिय वाले जीव 'प्राण', वनस्पतिकायिक जीव • 'भूत', सभी पंचेन्द्रिय प्राणी 'जीव' और शेष चार स्थावर (पृथ्वी, पानी, अग्नि व वायु) जीव ‘सत्व' कहलाते हैं । षट्जीवनिकाय - स्वरूप पर श्रद्धा रखने से ही संयम यात्रा अपने चरम तक पहुँच सकती है।' षट्जीवनिकाय हैं- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय । 2. अजीव जिस पदार्थ में ज्ञान - दर्शन रूप चैतन्य नहीं पाया जाए उसे अजीव कहते हैं। यह जीव का विरोधी भावात्मक पदार्थ है । इसके पाँच भेद हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल । धर्म जीव और पुद्गल जिस द्रव्य से गति करते हैं, उसे धर्म द्रव्य कहा जाता 264
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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