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________________ नवम परिवर्त ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन जीव-जगत्, आत्मा-परमात्मा, संयोग-वियोग, जन्म-मरण, सुख-दुःख तथा हेय-उपादेय की मीमांसा का नाम ही दर्शन है। दर्शन का अर्थ है देखना, गहरे उतरकर देखना, तत्त्व का साक्षात्कार करना। दर्शन के मुख्यत: तीन अंग हैतत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं नीतिमीमांसा या आचारमीमांसा। ज्ञाताधर्मकथांग के संदर्भ में धर्म-दर्शन के इन्हीं विभिन्न पहलुओं का विवेचन अग्रांकित शीर्षकों में किया गया है ज्ञाताधर्मकथांग में तत्त्वमीमांसा मानव ने सर्वप्रथम जब प्रकृति की गोद में आँखें खोली तो उसकी आँखें चुंधिया गई। उसके समक्ष अद्भुत और चमत्कारी वस्तुएँ और घटनाएँ उपस्थित हुई। सर्वप्रथम उसकी दृष्टि ऊपर पड़ी- उसने देखे- सूर्य, चन्द्रमा और तारामण्डल। जब उसकी दृष्टि नीचे पड़ी तो उसके समक्ष थे पर्वत, समुद्र और नदियाँ। इन सबको देखकर उसके मानसपटल पर प्रश्न उभरे कि ये सब क्या हैं? क्यों हैं? कैसे हैं ? कब से हैं ? आदि। जिस प्रकार मानव के मस्तिष्क में बाह्य विश्व के सम्बन्ध में प्रश्न उभरे ठीक उसी प्रकार आंतिरिक जगत् के गूढ़ और अति सूक्ष्म स्वरूप के विषय में भी उसके मन में जिज्ञासाएँ उत्पन्न हुईं- जगत् क्या है ? आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है? आदि। इन प्रश्नों की उत्पत्ति ही तत्त्व ज्ञान की दिशा में प्रथम चरणन्यास है। तत्त्वमीमांसा का विवेच्य विषय 'सत्' है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। 'सत्' की मीमांसा भी जैन दर्शन में इसी दृष्टिकोण से की गई है। इसलिए तत्त्वमीमांसा के अंतर्गत अनेकान्त की विवेचना सर्वप्रथम करणीय है। अनेकान्त __ अनेकान्त को जैन दर्शन का पर्याय माना जाता है। अनेक' और 'अन्त' इन दो शब्दों के योग से अनेकान्त शब्द बना है। अन्त का तात्पर्य यहाँ धर्मस्वभाव से है। जिसमें अनेक विरोधी धर्मों का सह अवस्थान हो, वह अनेकान्त 259
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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