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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन
गुणशील चैत्य में पधारे और परिषद् को धर्मोपदेश दिया।228 थावच्चापुत्र अणगार ने एक हजार मुनियों के साथ जनपदों में विचरण करते हुए शैलकपुर नगर के सुभूमिभाग नामक उद्यान में धर्मोपदेश दिया। 229 अरिष्टनेमि नन्दनवन नामक उद्यान में अपनी शिष्य सम्पदा के साथ पधारे और जनमेदिनी को धर्मोपदेश दिया 1230
जैन शिक्षा संस्थान के रूप में लयन या गुहागृह का उल्लेख भी मिलता है। जैन मुनियों या साधुओं को नगर ग्रामादि बहुजन संकीर्ण स्थानों से दूर पर्वत व वन की जनशून्य गुफाओं व कोटरों आदि में निवास करने का विधान है। इसी कारण प्राचीन समय में मुनि प्राकृतिक रूप से बनी गुफाओं में जाकर साधना करते थे। कालान्तर में श्रावक समुदाय ने कृत्रिम लयन या गुफाओं का विशिष्ट तरीके से निर्माण करना प्रारंभ कर दिया। इन मुनियों-साधुओं के कारण ये गुहागृह साधना के साथ-साथ शिक्षा के भी केन्द्र बन गए। 231
उपर्युक्त प्राचीन शिक्षण अभिकरणों के अलावा परिषद्, चरण, अग्रहार, यज्ञसत्र तथा राजसभा आदि की गणना भी शिक्षण संस्थाओं के रूप में की जा सकती है 1232
ज्ञाताधर्मकथांग के मंथन से प्राप्त उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि तत्कालीन शिक्षा आज की भांति सिर्फ सैद्धान्तिक ही नहीं थी अपितु व्यावहारिक भी थी । शिक्षा के विषयों में विभिन्न कलाओं के समावेश के कारण शिक्षा रोजगारोन्मुखी थी ।
यद्यपि उस समय आज की तरह बड़े-बड़े शिक्षा-संस्थान नहीं थे, शिक्षा गुरुकुलों में दी जाती थी, लेकिन इस प्रकार की शिक्षा जहाँ एक ओर शिक्षार्थी में अनुशासन-भावना का विकास करती थी, वहीं दूसरी ओर उसे जीवन - रणक्षेत्र में दो-दो हाथ करना सिखाती थी । शिक्षण श्रुतज्ञान पर आधारित था और प्रश्नोत्तरप्रविधि मुख्य शिक्षण - विधि के रूप में प्रचलित थी ।
शिष्य गुरु के सम्पर्क में आज की तरह सिर्फ पाँच-छः घंटे ही नहीं अपितु दिन-रात यानी चौबीस घण्टे रहता था, इससे उनके सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती थी, परिणामस्वरूप अनुशासनहीनता की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी ।
शिक्षार्थी सिर्फ चिकित्सक, शिल्पकार, संगीतकार आदि ही नहीं अपितु आदर्श नागरिक भी बनता था । शिक्षा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करने वाली थी। इस प्रकार कहा जा सकता है कि तत्कालीन शिक्षा व्यक्ति को आत्मनिर्भर ही नहीं बनाती थी बल्कि उसे आत्मकल्याण के मार्ग पर भी अग्रसर करती थी ।
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