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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन नहीं थे। सांकल से बांधना, चाबुक आदि से पीटना और कठोर वाणी से भर्त्सना करना- ये विधियाँ अध्ययनकाल में अध्यापक वर्ग द्वारा विहित मानी जाती थी।203 ज्ञातार्धकथांग में मेघकुमार संयम की प्रथम रात्रि में अपने सहवर्ती साधुओं के पादादि के स्पर्श से नींद नहीं ले पाता है और उसका मन संयम से विचलित होने लगा। भगवान महावीर ने उसे मृदु उपालम्भ देते हुए पुनः संयम में स्थिर करने का सफल प्रयास किया।24 सुकुमालिका आर्या के शरीरबकुश अर्थात् संयम से शिथिल हो जाने पर उसकी गुरु गोपालिका आर्या ने प्रायश्चित करने को कहा और ऐसा न करने पर उसे संघ से अलग कर दिया।205 इसी प्रकार के अपराध पर पुष्पचूला आर्या ने काली आर्या को प्रायश्चित अंगीकार करने को कहा, ऐसा न करने पर उसे संघ से अलग होना पड़ा।206 आपस्तम्ब में भी कहा गया है कि शिक्षक अपराधी शिष्य को अपने सामने से अलग कर दें अथवा उपवास निर्धारित कर दें।207 प्रायश्चित के दस भेद बताए हैं- आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, उपस्थान व पारांचिक ।208 वैदिक युग में आचार्य विद्यार्थी को प्रथम दिन ही आदेश देता था कि, "अपना काम स्वयं करो, कर्मण्यता ही शक्ति है, अग्नि में समिधा डालो, अपने मन को अग्नि के समान ओजस्विता से समृद्ध करो, सोओ मत। 209 गौतम हल्के शारीरिक दण्ड की अनुमति देते हैं, किन्तु यह साफ कर देते हैं कि कठिन दण्ड देने वाले शिक्षक राजा के द्वारा दण्डित हों।10
इस प्रकार स्पष्ट है कि दण्ड किसी भी रूप में कठोर या अमानषिक नहीं था। विद्यालय का जीवन सामान्यतः स्निग्ध तथा स्नेहमय रहा करता था। शिक्षार्थी
और शिक्षक के सम्बन्ध का आदर्श ही इतना उत्कृष्ट था कि अनुशासन भंग की संभावना ही अत्यल्प थी।
शिक्षालय
ज्ञाताधर्मकथांग में अग्रांकित शिक्षण अभिकरणों का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उल्लेख मिलता है1. गुरुकुल
उस समय शिष्य शिक्षार्थ गुरु के निवास स्थान अर्थात् गुरुकुल में जाते थे। मेघकुमार11 और थावच्चापुत्र12 जब आठ वर्ष के हुए तो उन्हें शुभ मुहूर्त में
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