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________________ ज्ञाताधर्मकथांग में शिक्षा दोहराने का वचन देता है। वह न कभी आचार्य के बराबर न उसके सामने और न उसके पीछे बैठता है। कभी आसन पर बैठकर वह प्रश्न नहीं पूछता, बल्कि यदि कुछ पूछना हो तो अपने आसन से उठकर, पास में आकर, हाथ जोड़कर पूछता है। यदि कभी आचार्य कठोर वचनों द्वारा शिष्य को अनुशासन में रखना चाहे तो तो वह क्रोध न करके शान्तिपूर्वक व्यवहार करता है और सोचता है कि इससे उसका लाभ ही होने वाला है, जैसे किसी अविनीत घोड़े को चलाने के लिए बार-बार कोड़ा मारने की आवश्यकता होती है वैसे ही विद्यार्थी को अपने गुरु से कर्कश वचन सुनने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि जैसे कोई विनीत घोड़ा अपने मालिक का कोड़ा देखते ही दौड़ने लगता है वैसे ही आचार्य का ईशारा पाकर सुयोग्य विद्यार्थी सत्कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। वास्तव में वही विनीत शिष्य कहा जाता है जो अपने गुरु की आज्ञा का पालन करता है, उसके समीप रहता है और उनका ईशारा पाते ही काम में लग जाता है। 175 जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो समाधियुक्त होता है, जो उपधान (श्रुत अध्ययन के समय तप) करता है, जो प्रिय करता है, जो प्रिय बोलता है- वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है।76 विद्यार्थी को सहनशील, इन्द्रियनिग्रही, मधुरभाषी, रसों में अलोलुप, अक्रोधी, शीलवती और सत्यभाषी होना चाहिए।17 आवश्यक नियुक्ति में अच्छे शिष्य के सम्बन्ध में कहा है कि वह आचार्य के पढ़ाए हुए विषय को हमेशा ध्यानपूर्वक सुनता है, प्रश्न पूछता है, प्रश्नोत्तर सुनता है, उसका अर्थ ग्रहण करता है, उस पर चिन्तन करता है, उसकी प्रामाणिकता का निश्चय करता है, उसके अर्थ को याद रखता है और तदनुसार आचरण करता है।78 कौटिल्य के अनुसार वे ही विद्या प्राप्ति के योग्य हैं जिनमें शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ऊहापोह, विवेक बुद्धि आदि गुण हैं। महाभारत में कहा गया है कि छात्रों को परनिन्दा, असत्य भाषण, चुगलखोरी, परचर्चा, असंस्कृत दृश्य-दर्शन तथा कुसंगति आदि दुर्गुणों से दूर रहना पड़ता था। उन्हें गुरु निन्दा नहीं करनी होती थी तथा भक्ष्याभक्ष्य एवं पेयापेय का भी विचार करना पड़ता था।180 सामान्यतः विद्यार्थी के लिए संध्या-वंदन, पूजा-पाठ, स्नान, सच्चरित्रता आदि धर्म के अंतर्गत शामिल किए गए थे। सत्य भाषण भी प्रमुख माना गया था और यह कहा गया था कि सत्य न बोलने से भी धर्म का क्षय हो जाता है।181 रघुवंश में छात्र नियम-संयम की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वह मृगचर्म पहनकर छात्र-जीवन व्यतीत करता था। परिधान के रूप में वह 'उत्तरीय' और 'वास' धारण करता था। 227
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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