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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन गया है- “जिस प्रकार कौमुदी के योग से युक्त तथा नक्षत्र और तारों के समूह से घिरा हुआ चन्द्रमा, बादलों से रहित अतीव स्वच्द आकाश में शोभित होता है, ठीक उसी प्रकार आचार्य भी साधु-समूह में सम्यक्तया शोभित होते हैं। 168 ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है कि गुरु साक्षात् शिव है, जो ज्ञान के वितरणार्थ पृथ्वी पर विचरण करते हैं । 169 गुरु की महत्ता को शब्दों में व्यक्त करना मानो सूर्य को दीपक दिखाना है। जैन दर्शन में गुरु की महत्ता को जाति, कुल या वर्ण से नहीं आंका गया है बल्कि उसकी महत्ता गुणों के आधार पर निर्धारित की गई है, उदाहरणार्थ उत्तराध्ययनसूत्र में चाण्डाल को भी शिक्षा पाकर महर्षि बनना बताया गया है। 170 शिष्य की अर्हताएँ शिक्षण कार्य तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक शिष्य योग्य नहीं हो । ज्ञाताधर्मकथांग में शिष्य के लिए 'अन्तेवासी' एवं 'शिष्य 171 शब्दों का प्रयोग किया गया है। शिष्य के गुणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वह विनयवान्, तपस्वी, तेजस्वी, शरीर के प्रति सर्वथा ममत्वहीन, कठिन ब्रह्मचर्य में लीन और उदार वृत्ति वाला होना चाहिए। उसे गुरु से न बहुत दूर, न बहुत समीप अर्थात् उचित स्थान पर, पूर्ण श्रद्धा के साथ मस्तक झुकाकर ध्यानरूपी कोष्ठ में स्थित होकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए बैठना चाहिए। 72 उस समय के शिष्यों में सेवा भावना प्रमुखता से परिलक्षित होती है, इसे अग्रांकित उदाहरण द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है- पंथक अनगार शैलक राजर्षि की शय्या, संस्तारक, उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म- संघाण के पात्र, औषध, भेषज, आहार, पानी आदि से बिना ग्लानि, विनयपूर्वक वैयावृत्य करने लगा। 173 आचारांग सूत्र में कहा गया है कि जैन संस्कृति के विद्यार्थी ऊन, रेशम, ताड़पत्र आदि से बने वस्त्रों के लिए गृहस्थ से याचना करते थे । वे चमड़े के वस्त्र और बहुमूल्य रत्नजड़ित अलंकृत वस्त्रों को ग्रहण नहीं करते थे । हट्टे-कट्टे विद्यार्थी केवल एक और भिक्षुणियाँ चार वस्त्र पहनती थी। 174 उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि कोई सुयोग्य शिष्य अपने शिक्षक के प्रति कभी अशिष्ट व्यवहार नहीं करता, कभी मिथ्या भाषण नहीं करता और एक जातिमन्त अश्व की भांति वह उसकी आज्ञा का पालन करता है । अपने प्रिय वचनों से गुरु के कोप को शान्त करता है और अपने प्रमादपूर्ण आचरण के लिए क्षमा मांगता हुआ भविष्य में इसे न 226
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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