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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन सूत्र के अर्थ में विशारद, कीर्ति से प्रसिद्धि को प्राप्त तथा चरित्र में तत्पर होना चाहिए।44 साथ ही ग्राह्य और आदेय वचन बोलने वाला, गंभीर, दुर्धर्ष, शूर, धर्म की प्रभावना करने वाला, क्षमागुण में पृथ्वी के समान, सौम्यगुण में चन्द्रमा के समान और निर्मलता में समुद्र के समान होना चाहिए।'45 उपाध्याय अमर मुनि के अनुसार- 'पाँच इन्द्रियों के वैषयिक चांचल्य को रोकने वाला, ब्रह्मचर्य व्रत की नवविध गुप्तियों को धारण करने वाला, क्रोधादि चार कषायों से मुक्त, अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों से युक्त, पाँच आचार का पालन करने में समर्थ, पाँच समिति और तीन गुप्तियों को धारण करने वाला श्रेष्ठ साधु ही गुरु है। 46 जीवन्धर चम्पू में गुरु की निर्लोभवृत्ति का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि गुरु भौतिक वस्तुओं की आकांक्षा नहीं करते थे। अपने उपदेश को शिष्य द्वारा मानने को गुरु दक्षिणा मान लेते थे।47 उपनिषद् में कहा गया है कि प्राचीनकाल में आचार्य अथवा अध्यापक अपने विषय का पूर्ण ज्ञानी और विद्वान होता था। वह शिष्य को मुक्ति के मार्ग का दिग्दर्शन कराने वाला सुज्ञानी होता था।48 गुरु अज्ञान के तिमिर से छात्र को ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश में लाता था।49 महाभारत में भी कहा गया है कि गुरु वाक्पटु, प्रत्युत्पन्नमति सम्पन्न, तार्किक और रोचक कथाओं में दक्ष तथा ग्रंथों का अर्थ करने में आशु पण्डित होता था।50 गुरु को शांत, समदर्शी, ज्ञानी, विद्वान, शास्त्रपारंगत एवं स्वाध्यायशील होना चाहिए।151 उसे क्षमाशील, संयमी, सत्यवादी, ऋजु तथा अन्य सद्गुणों से सम्पन्न होना चाहिए।52 शिक्षक के लिए कालिदास ने कहा है कि वह विद्वान ही नहीं होता अपितु शिष्ट क्रियायुक्त साधुप्रकृति वाला होता है।153 गुरु के प्रकार
जैनागमों में आचार्य के कई प्रकार बताए गए हैं। स्थानांग में गुण को दृष्टि में रखकर आचार्य के अग्रांकित भेद/प्रकार बतलाए गए हैंगुणों के आधार पर154i. आमलक-मधुर (आंवले की तरह मीठा) ii. मृदवीका-मधुर (दाख की तरह मीठा) iii. क्षीर-मधुर (दूध की तरह मीठा) iv. खंड-मधुर (शक्कर की तरह मीठा) दीक्षा की दृष्टि से155i. प्रव्राजनाचार्य
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