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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन हुए औपपातिक सूत्र में कहा गया है कि ये राजा सर्वगुणसम्पन्न थे, क्षत्रिय थे, जनता को आक्रमण तथा संकट से बचाने वाले थे। वे महाहिमवान पर्वत के समान महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र पर्वत के समान विशिष्टता से युक्त थे। वे राजा राज्योचित लक्षणों से सम्पन्न थे। वे सम्मानित, करुणाशील, क्षेमकर, क्षेमधर, पितृतुल्य, प्रतिपालक, हितकारक, कल्याणकारक, नरप्रवर, नरश्रेष्ठ, पुरुषवर आदि गुणों से सम्पन्न थे। कठोरता व पराक्रम में सिंहतुल्य, रौद्रता में बाघतुल्य, अपने क्रोध को सफल बनाने में सर्पतुल्य थे। सुखार्थी, सेवाशील, विरोधी राजा रूपी हाथियों के मानभंजक रूप गंधहस्ती के समान, समृद्ध, सुप्रसिद्ध एवं ऋद्धि सम्पन्न, कोषवर्धक, कल्याणमय, निरुपद्रव, तत्त्ववेत्ता, धर्मानुरागी, श्रमणोपासक, कुशल प्रशासक, न्यायप्रिय एवं दूरदर्शी थे।"
पद्मपुराण में कहा गया है कि राजा द्वारा ही धर्म का अभ्युदय होता है। ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख मिलता है कि थावच्चा गाथापति पुत्र के दीक्षोत्सव के लिये छत्र, चामर आदि मांगने कृष्ण महाराज के पास गई तो उन्होंने कर्तव्य परायणता का तथा 16 हजार राजाओं के राजा अर्द्ध भरत के अधिपति श्री कृष्ण का थावच्चापुत्र की परीक्षा हेतु सहजरूप से थावच्चा के घर जा पहुँचना उनकी असाधारण महत्ता और निरंकारिता का द्योतक है। लोगों को प्रव्रजा के लिए प्रेरित करने हेतु कृष्ण वासुदेव ने द्वारिका में घोषणा करवायी कि जो भी व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण करेगा, उसके परिवार के भरण-पोषण का दायित्व कृष्ण वासुदेव वहन करेंगे। परिणामस्वरूप एक हजार लोगों ने थावच्चापुत्र के साथ दीक्षा अंगीकार की। इससे उनकी धर्म श्रद्धा, धर्म दलाली, कथनी-करनी की एकरूपता, धर्मानुराग की झलक मिलती है जो कि सामान्य राजाओं में दुर्लभ है।
राजा न्याय के तराजू में सबको बराबर समझता था। श्रेणिक राजा ने किसी अपराध के कारण धन्य सार्थवाह को भी कारागार में विजयचोर के साथ बेड़ी में बांधकर रखा।
वासुदेव कृष्ण ने पाण्डवों की सहायता कर शरणागत वत्सलता का उदाहरण प्रस्तुत किया।
उस समय के राजा के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि- "नेहिल नजरों से निहारा निहाल हो गए, जिनसे नजरें फिराली व कंगाल हो गए।" राजा कनककेतु ने कालिक द्वीप से आकीर्ण घोड़े लाने वाले नौकावणिकों का सत्कारसम्मान कर उन्हें पुरस्कृत किया। राजा की दृष्टि कठोर हो गई तो वह कुछ भी
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