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ज्ञाताधर्मकथांग में सामाजिक जीवन व्यक्ति यहाँ तीनों आश्रमों का पालनकर्ता होता है। 23 गृहस्थाश्रम में प्रवेश का प्रथम सोपान विवाह है। ज्ञाताधर्मकथांग में विद्याध्ययन के बाद मेघकुमार24 और थावच्चापुत्र25 का गृहस्थाश्रम में प्रवेश देखा जाता है। वानप्रस्थाश्रम
वैदिक परम्परा की तरह गृहत्याग करके पत्नी के साथ वन में चले जाने की परम्परा तो जैन धर्म में नहीं मिलती, किन्तु व्रती श्रावक गृहस्थाश्रम में रहकर बारह व्रतों का पालन करता हुआ आत्मविकास के पथ पर धीरे-धीरे अग्रसर होता था और फिर कठिन अभिग्रह और तपस्या करता हुआ ग्यारह प्रतिमाओं के पालन द्वारा गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी भिक्षु जैसा जीवनयापन करता था। ज्ञाताधर्मकथांग में ऐसे व्रती श्रावकों का उल्लेख मिलता है- जितशत्रुराजा 26, नन्दमणियार27 और कनकध्वज राजा ने श्रावक व्रत अंगीकार किए। संन्यासाश्रम
जैन परम्परानुसार श्रमणाचार ही संन्यास आश्रम है, जिसमें साधक पाँच महाव्रतों का आजीवन पालन करता हुआ क्रमशः आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होता जाता है। ज्ञाताधर्मकथांग में राजा, महाराजा एवं सम्पन्न लोग शुभ तिथि, मुहूर्त देखकर, दान, महादान, पूजा आदि करने के बाद दीक्षा लेते हुए अर्थात् संन्यास आश्रम में प्रवेश करते हुए देखे जाते हैं।529
इस प्रकार कहा जा सकता है कि ज्ञाताधर्मकथांग में चारों आश्रमों का प्रत्यक्ष उल्लेख तो नहीं मिलता लेकिन विभिन्न प्रसंगों के आधार पर आश्रम व्यवस्था के अस्तित्व को स्वीकार किया जा सकता है।
ज्ञाताधर्मकथांग का सामाजिक दृष्टिकोण से सिंहावलोकन करने से उस समय की सांस्कृतिक उत्कृष्टता परिलक्षित होती है। परिवार, पारिवारिक सम्बन्ध, विवाहादि संस्कार, वेशभूषा, खानपान, मनोरंजन व लोक विश्वास आदि का समृद्ध रूप हमारे सामने आता है। हालांकि समाज में व्याप्त विभिन्न कुरीतियों
और बुराईयों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, फिर भी अप्रत्यक्षरूप से वर्ण व्यवस्था पर आधारित सामाजिक प्राणी ब्रह्मचर्य (विद्याध्ययन), गृहस्थ, वानप्रस्थ (श्रावक) आदि जीवन की क्रमागत अवस्थाओं से गुजरता हुआ अपने परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति की दिशा में संलग्न था। इसी पवित्र लक्ष्य के कारण सामाजिक जीवन सुखी और समृद्ध था।
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