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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन थे। झूठ बोलकर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करते थे। विजय चोर दूसरों को ठगने, धोखा देने, माया/कपट करने, तौल-नाप को कमज्यादा करने और वेष और भाषा को बदलने में अति निपुण था।489 महाबल कपटपूर्ण तपस्या करने के कारण ही स्त्री गोत्र का बंध करते हैं।190 जो लोग बालघातक, विश्वासघातक, जुआरी, खण्डरक्षक, मनुष्यों के हाथ-पैर आदि अवयवों को छेदन-भेदन करते थे उन लोगों को चोर सेनापति विजय शरण देता था अर्थात् प्रोत्साहित करता था ज्ञाताधर्मकथांग से यह भी ज्ञात होता है कि चोर विद्याएँ प्रचलित थी और सिखाई भी जाती थी।492 अन्याय-अत्याचार- उस समय समाज में अन्याय-अत्याचार आदि भी खूब प्रचलन में थे। अनेक प्रकार के अत्याचारों का बोलबाला था। अत्याचारी लोग सेंध लगाते, खात खोदते, ऋण लेने के बाद पुनः न लौटाते, लोगों के साथ विश्वासघात करते एवं अवयव विच्छेद और पशुघात करने में नहीं सकुचाते थे।93 इस प्रकार उस समय समाज में अनेक सामाजिक विकृतियाँ थी। वर्ण व्यवस्था जैन पुराणों से स्पष्ट होता है कि आदिकाल में वर्ण व्यवस्था नहीं थी। पद्मपुराण और हरिवंशपुराण 95 में वर्णित है कि ऋषभदेव ने सुख-समृद्धि के लिए समाज में सुव्यवस्था लाने की चेष्टा की थी और इस व्यवस्था के फलस्वरूप क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- ये तीन वर्ण उत्पन्न हुए। ऋषभदेव ने जिन पुरुषों को विपत्तिग्रस्त मनुष्यों के रक्षार्थ नियुक्त किया, वे अपने गुणों के कारण लोक में 'क्षत्रिय' नाम से प्रसिद्ध हुए। जिनको वाणिज्य, खेती एवं पशुपालन आदि के व्यवसाय में लगाया गया था, वे लोक में 'वैश्य' कहलाए। जो नीच कर्म करते थे और शास्त्र से दूर भागते थे, उन्हें 'शूद्र' की संज्ञा प्रदान की गई। प्रज्ञापना सूत्र में आर्यों की नौ जातियाँ बताई गई हैं- क्षेत्र आर्य, जाति आर्य, कुल आर्य, कर्म आर्य, शिल्पार्य, भाषार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य96 जैन आगमों में वर्णों का उल्लेख अवश्य हुआ है लेकिन उन वर्णों का व्यवस्थागत उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इनमें बंभण (माहण), खत्तिय, वाइस्स 154
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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