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ज्ञाताधर्मकथांग में सामाजिक जीवन प्रदान की जाती थी।234
ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसार जाति, वर्ण, लिंग आदि का भेदभाव दीक्षा के लिए किंचित भी नहीं था। द्रौपदी235, मल्लीभगवती236 (क्षत्रिय), काली (वैश्य)237
और शूद्र आदि विभिन्न जातियों की स्त्रियाँ बिना किसी भेदभाव के दीक्षित हुईं। स्वर्णकार की कन्या पोट्टिला ने भी दीक्षा ग्रहण की।238
कन्या39 और विवाहिता स्त्री240 को दीक्षा के लिए क्रमशः अपने मातापिता या पति से आज्ञा लेनी पडती थी।
कभी नारी शक्ति आश्चर्य के रूप में उभर कर सामने आती है। ऐसा ही एक आश्चर्य मल्ली भगवती (19वें तीर्थंकर) का है। मल्ली भगवती द्वारा अन्य तीर्थंकरों के समान स्वयं दीक्षित होकर अन्य पुरुषों और नारियों को दीक्षित करने का उल्लेख ज्ञाताधर्मकथांग में मिलता है।241
जहाँ नारी पवित्रता के कारण आदर्श की प्रतिमूर्ति थी और जनसामान्य की आराध्य थी, वहाँ वह अपनी उदरपूर्ति के लिए कामुकता का प्रदर्शन करके भी आजीविका चलाती थी। उसके स्वरूप को 'गणिका' की संज्ञा दी गई। पालि-अंग्रेजी शब्दकोश में गणिका शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए बतलाया गया है कि गणमान्य व्यक्तियों द्वारा भोगी जानी वाली गणिका है तथा सामान्य वर्ग द्वारा भोगी जाने वाली नारी वैश्या कहलाती है।242 ज्ञाताधर्मकथांग में देवदत्ता नामक गणिका के विषय में कहा गया है कि वह धन सम्पन्न थी और कोई भी उसको तिरस्कृत करने का साहस नहीं कर सकता था। वह चौंसठ कलाओं की ज्ञाता थी। वह कामशास्त्र में प्रवीण थी। वह अत्यन्त सुन्दर थी। वह एक हजार रूपए शुल्क स्वरूप लेती थी। राजा ने उसे छत्र-चामर आदि प्रदान किए थे। वह एक हजार गणिकाओं की अधिपति थी।243 गणिका के साथ रथ पर आसीन हो नगर भ्रमण करना भी सम्मानसूचक माना जाता था।244
इस प्रकार कहा जा सकता है कि ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित नारी जहाँ एक ओर अपनी शीलाचार और सतीत्व के कारण पुरुष तो क्या देवताओं तक की आराध्या है, लेकिन दूसरी तरफ वह व्यभिचारिणी स्त्री के रूप में भी प्रकट हुई है। वह साध्वी के रूप में मानव मात्र को आत्मकल्याण के पथ पर उन्मुख करती है तो गणिका के रूप में जनमानस के बीच कला की उपासिका बनकर उभरती है। नारी अपने विविध वांछनीय-अवांछनीय रूपों में ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित है।
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