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ज्ञाताधर्मकथांग में सामाजिक जीवन मेघकुमार और थावच्चापुत्र 2 ने जब दीक्षा की आज्ञा मांगी तब उनकी माताओं ने उनकी भार्याओं के लिए चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा- "ये समान शरीर, वय, लावण्य, रूप, यौवन और गुणों से सम्पन्न तथा राजकुलों से लाई हुई हैं अतएव तुम्हें इनका ख्याल रखते हुए इनके साथ मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगना चाहिए।"
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि पुत्रवधुओं को पुत्रों के समान महत्व, अधिकार एवं सम्मान प्राप्त था, जो होना भी चाहिए। भाई-भाई का सम्बन्ध
ज्ञाताधर्मकथांग में भाई-भाई का मधुर सम्बन्ध अनेक स्थलों पर दृष्टिगोचर होता है। भाई-भाई में प्रगाढ़ प्रेम होने के कारण ही माकन्दी पुत्र-जिनपालित
और जिनरक्षित बारह बार समुद्र यात्रा साथ-साथ करते हैं। अमरकंका (दोवई) कथा में तीन ब्राह्मण-बन्धु आपस में प्रीति होने के कारण प्रतिदिन बारी-बारी से एक-दूसरे के यहाँ भोजन करते हैं। पुण्डरीक कथा में पुण्डरीक और कंडरीक दो भाई थे। पुण्डरीक राजा था, कंडरीक युवराज । कंडरीक ने दीक्षा ले ली। कुछ समय श्रमण पर्याय में रहने के बाद वह श्रमण धर्म के कठिन परीषहों से घबराकर गृहस्थ में आना चाहता था, इस पर पुंडरीक ने कंडरीक को राजपद सौंप दिया और स्वयं उसके स्थान पर दीक्षित होकर परीषहों को सहन करते हुए विचरने लगा। इसी प्रकार धन्य सार्थवाह के पाँचों पुत्रों को एक-दूसरे के लिए प्राणोत्सर्ग करने हेतु तत्पर देखकर कहा जा सकता है कि भाईयों के पारस्परिक सम्बन्ध अत्यन्त प्रगाढ़ और मधुर थे। भाई-बहन का सम्बन्ध
ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख मिलता है कि जब सुंसुमा का अपहरण हुआ तो पाँचों भाईयों ने उसे चिलात चोर से छुड़वाने का भरसक प्रयास किया और जब चिलात ने सुसुमा को मार दिया तब उन भाईयों में गहरा शोक-सा छा गया अर्थात् उन्हें अपनी बहन की मृत्यु असह्य लगी।” अन्य सम्बन्धी और मित्र
___ ज्ञाताधर्मकथांग में विभिन्न स्थलों पर स्वजन व सम्बन्धियों आदि का उल्लेख मिलता है। जन्मोत्सव, विवाह व यात्रा आदि सभी कार्यक्रमों से मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों का आना, मिलना, बुलाना आदि देखा जाता है और उनके साथ मिलकर आनन्दोत्सव आदि मनाए जाते हैं।
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