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________________ चतुर्थ परिवर्त ज्ञाताधर्मकथांग में सामाजिक जीवन ज्ञाताधर्मकथांग में तत्कालीन संस्कृति से जुड़े विभिन्न आयामों का अनावृत्त स्वरूप देखने को मिलता है जिनमें से एक महत्वपूर्ण आयाम है- सामाजिक स्थिति । संस्कृति और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । संस्कृति के बिना समाज अंधा है और समाज के बिना संस्कृति पंगु है । सामाजिक स्थिति की समीक्षा के लिए तत्कालीन समाज की पारिवारिक स्थिति, रीति-रिवाज, संस्कार, खान-पान, रहन-सहन, वस्त्राभूषण और उत्सव - महोत्सवों से परिचित होना इष्ट है । प्रस्तुत अध्याय में सामाजिक स्थिति से जुड़े विभिन्न पहलुओं को ज्ञाताधर्मकथांग के विशेष संदर्भ में उजागर किया गया है परिवार सामाजिक जीवन की प्रमुख आधारभूत संस्था है- परिवार । परिवार का जन्म संभवतः व्यक्ति के जन्म के साथ ही हुआ क्योंकि परिवार ही एक ऐसी आधारभूत इकाई है जो व्यक्ति की अमानुषिक प्रवृत्तियों का परिशोधन कर उसे समाजीकरण की ओर प्रवृत्त करता है । व्यक्ति का अस्तित्व परिवार में ही संभव होता है। व्यक्तित्व का विकास परिवार में ही होता है। परिवार से ही वह समाज के रीति-रिवाजों, व्यवहारों, मान्यताओं, आदर्शों तथा विश्वासों को सीखता है और उनके अनुकूल अपने व्यवहार को ढालने की कोशिश करता है । सम्पूर्ण ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसंधान के आधार पर कहा जा सकता है कि परिवार में पति-पत्नी के अलावा माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री आदि रहते थे। सामान्यतः पारिवारिक सम्बन्ध मधुर थे। परिवार का मुखिया वयोवृद्ध सदस्य या पिता होता था और सब परिजन उसकी आज्ञा का पालन करते थे । उसकी पत्नी गृह स्वामिनी होती थी, जो परिवार के सभी क्रिया-कलापों को नियंत्रित करती थी । कौटिल्य के अनुसार परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के लिए परिवार का मुखिया ही उत्तरदायी है। परिवार में बालक, स्त्री, माता-पिता, भाई-बहन और विधवा स्त्रियों का समावेश होता है। परिवार के सब लोग एक ही स्थान पर 109
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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