SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यहाँ देना संभव नहीं है अतः कतिपय शतकों की विषयवस्तु प्रस्तुत की जा रही है। पहला शतक- पहले शतक में दस उद्देशक हैं। सर्वप्रथम मंगलाचरणके पश्चात् भगवान् महावीर व गौतम गणधर का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इसके पश्चात् 'चलमाणे चलिते' से प्रश्नोत्तर प्रारंभ होते हैं। इस शतक में चलित आदि नौ प्रश्न, चौबीस दंडकों की स्थिति, आहार, श्वास आदि की प्ररूपणा की गई है। पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों में भगवान् महावीर ने जीवन, श्वास, आहार, संज्ञा व चैतन्य के विकास आदि को समझाया है। पृथ्वीकायादि स्थावर जीव प्रतिपल प्रतिक्षण आहार करते हैं। इनमें चैतन्य स्पर्शेन्द्रिय द्वारा प्रकट होता है। इसी शतक में कांक्षामोहनीय कर्म, मोक्ष, सूर्योदय व अस्त के अवकाश, रोह के प्रश्र, लोकस्थिति, जीव पुद्गल का संबंध, जीव के लघुत्व व गुरुत्व की धारणा, गर्भस्थ जीव के आहार, प्रासुक व एषणीय आहार का फल आदि का विवेचन किया गया है। दूसरा शतक- दूसरे शतक में दस उद्देशक हैं। सर्वप्रथम एकेन्द्रियादि जीवों का वर्णन हुआ है। इसके पश्चात् स्कन्दक परिव्राजक के प्रकरण में स्कन्दक परिव्राजक के लोकादि के संबंध में प्रश्न, भगवान् द्वारा समाधान, स्कन्दक की प्रव्रज्या व उसकी तपस्या, तंगिका के श्रावकों के साथ पार्थापत्यों के प्रश्नोत्तर, सात-समुद्घात, भाषा, चरमेन्द्र की सभा आदि का वर्णन है। इस शतक में भगवान् महावीर ने पंचास्तिकाय की प्ररूपणा की है। यथा- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय व पुद्गलास्तिकाय। इन पाँचों अस्तिकायों के स्वरूप का वर्णन द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की दृष्टि से किया गया है। तीसरा शतक- तीसरे शतक में तामली तापस की उत्कृष्ट तपस्या और उससे होने वाली दिव्य उपलब्धियों का वर्णन है। इस शतक में क्रियाओं के पाँच भेद किये गये हैं- कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया। पुनः इनके दो-दो प्रभेद किये हैं। लोकपाल व उनके विमानों के नाम, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क व वैमानिक इन देवों के अधिपतियों, चरमेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक की परिषद् आदि का भी वर्णन है। चौथा शतक- भगवतीसूत्र का चौथा शतक अत्यंत संक्षिप्त है। इसमें ईशानेन्द्र के चार लोकपालों के विमानों का उल्लेख करते हुए सोम महाराज के 'सुमन' नामक महाविमान का विस्तृत वर्णन हुआ है। ईशानेन्द्र के लोकपालों की राजधानियों, नैरयिकों की उत्पत्ति व लेश्याओं के संबंध में विचार किया गया है। पाँचवा शतक- खगोल विज्ञान की दृष्टि से यह शतक महत्त्वपूर्ण है। विषयवस्तु
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy