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________________ वृत्ति- भगवतीसूत्र पर नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि की लिखी वृत्ति उपलब्ध है। यह वृत्ति मूलानुसारी है। सं. 1128 अणहिलपाटक नगर में इस वृत्ति की रचना हुई थी। इसका ग्रंथमान अनुष्टुप श्रीक के अनुपात से 18,616 है। वृत्ति का प्रारंभ मंगलाचरण के साथ किया गया है। मंगलाचरण में सर्वप्रथम जिनेश्वर देव को नमस्कार किया गया है। उसके बाद भगवान् महावीर, गणधर सुधर्मा, अनुयोग वृद्धजनों को तथा सर्वज्ञप्रवचन को श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् आचार्य अभयदेवसूरि ने व्याख्याप्रज्ञप्ति की प्राचीन टीका और चूर्णि तथा जीवा-जीवाभिगम आदि की वृत्तियों की सहायता से प्रस्तुत आगम को विवेचित करने का संकल्प किया है। __अभयदेवसूरि की यह वृत्ति बहुत ही संक्षिप्त है। प्रायः शब्दों की दृष्टि से ही अर्थ की प्रधानता है, लेकिन कई जगह ऐसे उदाहरण भी दिये गये हैं, जिससे आगम के गूढ़ रहस्यों को सरलता से समझा जा सके। वृत्ति में आचार्य अभयदेवसूरि ने 'पाठान्तर' व व्याख्याभेद भी दिये हैं। कई जगह अर्थ को सरलता से समझाने का प्रयत्न भी किया गया है। वृत्ति में आचार्य ने 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' शब्द की भिन्नभिन्न दृष्टिकोणों से व्याख्या प्रस्तुत की है। इससे इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। प्रत्येक शतक की वृत्ति के अन्त में वृत्ति समाप्ति सूचक एक-एक शोक भी दिया है। वृत्ति की समाप्ति पर प्रशस्ति में 16 शोक हैं, जिनमें उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का परिचय दिया है। वृत्ति के शोधनकार द्रोणसूरि के प्रति तथा सहायकों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है तथा अन्त में रचना की पूर्णाहूति का काल व ग्रंथमान का उल्लेख किया गया है। अन्य टीका ग्रंथ अभयदेवसूरि ने व्याख्याप्रज्ञप्ति की प्राचीन टीका व चूर्णि का उल्लेख किया है। इसका विस्तृत विवेचन भगवई, खण्ड-134 में किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि संभवतः यह टीका आचार्य शीलांक की होनी चाहिये, जो कि आज उपलब्ध नहीं है। कहा जाता है कि आचार्य शीलांक ने नौ अंगों पर टीका लिखी थी। वर्तमान में आचारांग और सूयगड़ांग पर ही उनकी टीकाएँ प्राप्त हैं, शेष सात आगमों पर नहीं। आचार्य शीलांक के अतिरिक्त अन्य किसी आचार्य ने इस पर व्याख्या लिखी हो यह उल्लेख प्राचीन साहित्य में नहीं है। स्वयं आचार्य अभयदेव ने अपनी वृत्ति के प्रारंभ में चूर्णि का उल्लेख किया है, अतः प्राचीन टीका चूर्णि नहीं हो सकती। यह अन्य वृत्ति ही होगी। व्याख्याप्रज्ञप्ति पर परवर्तीकाल में भी वृत्ति, व्याख्या आदि लिखे जाते रहे हैं। ग्रन्थ-परिचय एवं व्याख्यासाहित्य 35
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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