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________________ (आगम) विरुद्ध प्रवृत्ति करने के कारण साम्परायिक क्रिया लगती है। क्रोधादि कषायों को संसार भ्रमण का कारण मानते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि क्रोधादि कषायों से आर्त बना जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धनों से बंधी हुई कर्म-प्रकृतियों को गाढ़ बंधन वाली करता है तथा इस अनन्त संसार में बार-बार भ्रमण करता है। क्रोध रहितता, मान रहितता, माया रहितता व लोभ रहितता को श्रमणों के लिए प्रशस्त बताया है। ग्रंथ में कर्मबंध के इन मूल कारणों के अतिरिक्त यत्र-तत्र अन्य कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। हँसने, उत्सुकता, निद्रा, प्रचला से कर्मबंध होता है। प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानों के सेवन से कर्कशवेदनीय कर्म का बंध होता है। इनके विरमण से अकर्कश वेदनीय कर्मबंध होता है। प्राणियों पर अनुकम्पा करने, उन्हें दुःख, शोक, चिन्ता, वेदन, रुदन, परिताप आदि न देने से जीव साता वेदनीय कर्मबंध करता है। इसके विपरीत दूसरों को दुःख आदि देने से जीव असातावेदनीय कर्मबंध करता है। कर्मबंध के उक्त सभी कारणों का समावेश प्रमाद में ही हो जाता है। क्रिया क्रिया का साधारण अर्थ है, प्रवृत्ति। जैन परम्परा में कर्मबंध की कारणभूत चेष्टा को क्रिया कहते हैं। ग्रंथ में क्रियाओं के पाँच प्रकार बताये गये हैं।" 1. कायिकी, 2. अधिकरणिकी, 3. प्राद्वेषिकी, 4. परितापनिकी, 5. प्राणातिपातिकी कायिकी- काया में या काया से होने वाली क्रिया। अधिकरणिकी- तलवार आदि शस्त्र अधिकरण कहलाते हैं, उनसे होने वाली क्रिया। प्राद्वेषिकी- द्वेष निमित्त होने वाली क्रिया। परितापनिकी- परिताप या पीड़ा पहुँचाने से होने वाली क्रिया। प्राणातिपातिकी- प्राणियों के प्राणनाश से होने वाली क्रिया। क्रियाओं के स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि ये क्रियायें आत्मकृत होती हैं तथा मन, वचन व काया से स्पृष्ट होती हैं। ये क्रियायें स्वयं करने से लगती हैं; दूसरों के करने से नहीं। ये अनुक्रमपूर्वककृत होती हैं । कर्मबन्ध की प्रक्रिया कर्मबंध की चार अवस्थाएँ हैं; भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन 284
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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