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कर्मबंध
आत्मा के साथ कर्मपरमाणुओं का संबंध होना कर्मबंध है। बंध की परिभाषा देते हुए आचार्य तुलसी ने जैन सिद्धांत दीपिका में कहा है- कर्म-पुद्गलादानं बन्ध - (4.6)। दूसरे शब्दों में आत्मा अपनी सद्-असद् प्रवृत्तियों के द्वारा कर्म बनने की योग्यता रखने वाले पुद्गलों को आकर्षित कर उन्हें अपने साथ बाँध लेती है। इसी प्रक्रिया का नाम कर्मबंध है। कर्मबंध के कारण
यह नियम शाश्वत है कि कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता है अतः कर्मबंध भी अकारण नहीं होते हैं, उनके कुछ हेतु अवश्य होते हैं अन्यथा तो सिद्धों के भी कर्मबंधन होने लगेंगे। वास्तव में तो कर्मबंधन के अनुकूल आत्मा की परिणति ही बंधन का हेतु है। भगवतीसूत्र में कर्मबंधन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि शरीर को धारण करने वाला संसारी जीव ही प्रमाद व योग के कारण कर्मबंध करता है। निम्न संवाद दृष्टव्य है
गौतम- भगवन् ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म बाँधता है? भगवान् - गौतम! बाँधता है। गौतम - भगवन् ! वह किन कारणों से बाँधता है? भगवान् - गौतम! उसके दो हेतु हैं - प्रमाद और योग। गौतम - भगवन् ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है? भगवान् - योग से। गौतम - योग किससे उत्पन्न होता है? भगवान् - वीर्य से। गौतम - वीर्य किससे उत्पन्न होता है? भगवान् -शरीर है। गौतम - शरीर किससे उत्पन्न होता है? भगवान - जीव से - (व्या. स. 1.3.9)
उपर्युक्त उदाहरण में कर्मबंध के दो प्रमुख कारण बताये गये हैं; प्रमाद व योग। समवायांग, स्थानांग व तत्त्वार्थसूत्रादि जैन ग्रंथों में कर्मबंध के पाँच कारण माने गये हैं- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय व योग 28 इसे स्पष्ट करते हुए भगवतीवृत्ति में कहा गया है कि मिथ्यात्व, अविरति व कषाय का अन्तर्भाव प्रमाद में ही हो जाता है। इस दृष्टि से प्रमाद व योग कर्मबंध के मुख्य कारण हैं। संक्षेप में समवायांग में भी कर्मबंध के दो ही कारण माने हैं; कषाय व योग।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन