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________________ प्रमार्जन किया, उच्चारणप्रस्त्रवण की भूमि का प्रतिलेखन किया। फिर डाभ का संस्तारक बिछाकर ब्रह्मचर्यपूर्वक सम्यक प्रकार से पौषध का पालन किया। अतिथिसंविभाग व्रत- यह चौथा शिक्षाव्रत है। इस व्रत में सेवा, दान करुणा और परमार्थ की भावनाएँ ही मुख्य रूप से रहती हैं। इस व्रत का अनुपालन करने वाला श्रावक स्व-कल्याण के साथ-साथ पर-कल्याण का भी प्रयास करता है। उपासकदशांग टीका में उचित रूप से मुनि आदि चारित्र सम्पन्न योग्यपात्रों को अन्न, वस्त्र आदि का यथाशक्ति वितरण को अतिथिसंविभाग व्रत कहा है। श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र में इसका स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि निग्रंथ साधुओं को अचित्त दोष रहित अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार तथा औषधि का योग मिलने पर दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है। तत्त्वार्थसूत्र में अतिथिसंविभागवत के माध्यम से दान प्रदान करते समय चार बातों का ध्यान रखना आवश्यक बताया है- विधि, द्रव्य, दाता व पात्र । आवश्यकवृत्ति में कहा गया है कि श्रावक ने अपने लिए जो आहारादि का निर्माण किया है या अन्य साधन प्राप्त किये हैं, उनमें से एषणा समिति से युक्त निस्पृह श्रमण-श्रमणियों को कल्पनीय एवं ग्राह्य आहार आदि देने के लिए विभाग करना यथासंविभाग है। - भगवतीसूत्र में कहा गया है कि तुंगिकानगरी के श्रमणोपासकों के दरवाजे याचकों के लिए सदैव खुले रहते थे। वे श्रमण निग्रंथों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज आदि उपलब्ध कराते थे। शुद्धरूप से इस व्रत को पालन करने वाला मोक्षमार्गी बनता है। इस व्रत की महत्ता तथा इसके श्रेष्ठ फल को बताते हुए भगवतीसूत्र के सातवें शतक में कहा है- तथारूप (उत्तम) श्रमण और माहन को प्रासुक व एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार द्वारा प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक उस श्रमण या माहन को समाधि उपलब्ध कराता है तथा स्वयं भी समाधि को प्राप्त होता है। वह श्रमणोपासक जीवित (जीवन निर्वाह के योग्य) का त्याग करता है, दुस्त्यज वस्तु का त्याग करता है, दुष्कर कार्य करता है, दुर्लभ वस्तु का लाभ लेता है, बोधि (सम्यग्दर्शन) का बोध प्राप्त करता है और अन्त में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है। दान देते समय विधि, द्रव्य, दाता व पात्र चारों ही शुद्ध होने चाहिये तभी इस व्रत का सम्पूर्ण पालन संभव है। भगवतीसूत्र में कहा गया है तथारूप श्रमण या माहन को प्रासुक, व एषणीय आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाला श्रमणोपासक 270 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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