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तृतीय सप्तअहोरात्रिकी- (तृतीय सप्तरात्रिदिवसकी) दसवीं प्रतिमा भी सात दिन रात्रि की होती है। इसमें भी एकान्तर चौविहार उपवास करके ग्राम आदि के बाहर आसन विशेष लगाकर ध्यान किया जाता है।
अहोरात्रिकी- ग्यारहवीं प्रतिमा एक दिन रात्रि की होती है। आठ प्रहर तक इस प्रतिमा की साधना की जाती है। इसमें चौविहार बेला किया जाता है तथा गाँव या नगर के बाहर जाकर दोनों हाथों को घुटने तक लम्बे करके कायोत्सर्ग किया जाता है।
रात्रिकी- बारहवीं प्रतिमा एक रात्रि की होती है। इसकी आराधना चौविहार तेले के द्वारा की जाती है। इसमें एक पुद्गल पर अनिमेष ध्यान केन्द्रित करके कायोत्सर्ग किया जाता है।
भिक्षु प्रतिमाओं की अवधि को लेकर कुछ मतभेद है। इसका उल्लेख देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने अपने ग्रंथ में किया है। युवाचार्य मधुकरमुनि ने 'त्रीणि छेदसूत्राणि' (दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र) में दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में इसका विस्तृत विवेचन किया है। गुणरत्नसंवत्सर तप1
जिस तप में गुणरूप रत्नों वाला सम्पूर्ण वर्ष बिताया जाय वह गुणरत्नसंवत्सर तप कहलाता है। यह तप 16 मास का होता है। इसमें 16 मास तक एक ही प्रकार की निर्जरारूप विशेष गुण की रचना होती है। इसी कारण इसे गुणरचन (रत्न) संवत्सर तप कहते हैं। इसमें 407 दिन तपस्या के व 73 दिन पारणे के होते हैं। भगवतीसूत्र में स्कन्दक अनगार द्वारा गुणरत्नसंवत्सर तप को धारण करने का उल्लेख हुआ है। इसकी विधि इस प्रकार बताई गई है- पहले महीने में निरन्तर उपवास करना, दूसरे महिने में निरन्तर बेले-बेले (छट्ठ-छट्ठ), तीसरे मास में निरन्तर तेले-तेले, चौथे मास में निरन्तर चौले-चौले, पाँचवे मास में पचौले-पचौले पारणा करना। छठे मास में निरन्तर छह-छह, सातवें मास में निरन्तर सात-सात, आठवें मास में निरन्तर आठ-आठ, नौवें मास में निरन्तर नौ-नौ, दसवें मास में निरन्तर दस-दस, ग्यारहवें मास में निरन्तर ग्यारह-ग्यारह, बारहवें मास में निरन्तर बारह-बारह, तेरहवें मास में निरन्तर तेरह-तेरह उपवास करना। चौदहवें मास में निरन्तर चौदह-चौदह, पन्द्रहवें मास में निरन्तर पन्द्रह-पन्द्रह और सोलहवें मास में निरन्तर सोलह-सोलह उपवास करना। इन सभी में दिन में उत्कुटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख करके आतापनाभूमि में आतापना लेना, रात्रि के
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन