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________________ 19. सत्कार पुरस्कार परीषह- आदर, सत्कार, प्रतिष्ठा, यश, प्रसिद्धि आदि न मिलने से होने वाला मानसिक खेद, सत्कार-पुरस्कार परीषह है। 20. प्रज्ञा परीषह- प्रखर या विशिष्ट बुद्धि का गर्व करना प्रज्ञा परीषह है। 21. ज्ञान या अज्ञान परीषह- विशिष्ट ज्ञान होने पर अहंकार करना तथा ज्ञान की मंदता होने पर दैन्यभाव को प्रकट करना ज्ञान या अज्ञान परीषह है। 22. अदर्शन या दर्शन परीषह- दुसरे मत वालों की रिद्धि-वृद्धि, चमत्कार, आडम्बरादि देखकर सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त से विचलित होना अदर्शन या दर्शन परीषह है। यद्यपि ग्रंथ में जीव के ये 22 परीषह बताये गये हैं किन्तु, वह एक साथ बाईस परीषहों को नहीं वेदता है। आयुकर्म को छोड़कर सात प्रकार के तथा आयुबंधकाल में आठ प्रकार के कर्मों का बंध करने वाला जीव बीस परीषहों को ही वेदता है क्योंकि जिस समय उष्ण परीषह को वेदता है उस समय शीत परीषह को नहीं वेदता है तथा जिस समय चर्या परीषह का वेदन करता है उस समय निषद्या परीषह का वेदन नहीं करता है। उत्तराध्ययन व समवायांग में भी परीषहों की संख्या 22 बताई गई है, किन्तु 20, 21 व 22वें परीषह के क्रम में कुछ अन्तर है। भगवतीसूत्र में परीषहों का क्रम उत्तराध्ययनसूत्र के समान है। समवायांग में 20वां ज्ञान, 21वां दर्शन तथा 22वां प्रज्ञा है। भगवतीसूत्र व उत्तराध्ययन में प्रज्ञा, अज्ञान-ज्ञान व दर्शन ऐसा क्रम है। परीषह व कर्म प्रकृतियाँ कर्म प्रकृतियाँ आठ हैं, किन्तु 22 परीषहों का ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय व अन्तराय इन चार कर्म प्रकृतियों में ही समावेश हो जाता है। दूसरे शब्दों में इन चार कर्मों के उदय से ये 22 परीषह उत्पन्न होते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म में प्रज्ञापरीषह व ज्ञानपरीषह का समावेश होता है। वेदनीय कर्म में क्षुधा परीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, उष्णपरीषह, दंशमशकपरीषह, चर्यापरीषह, शय्यापरीषह, वधपरीषह, रोगपरीषह, तृणस्पर्शपरीषह और जल्लपरीषह इन ग्यारह परीषहों का समावेश होता है। दर्शन मोहनीय कर्म में एक मात्र दर्शन परीषह का समावेश होता है। चारित्र मोहनीय कर्म में अरति परीषह, अचेल परीषह, स्त्री परीषह, निषद्यापरीषह, याचनापरीषह, आक्रोशपरीषह और सत्कार-पुरस्कार परीषह का समावेश होता है। अन्तरायकर्म में एक अलाभ परीषह का समावेश होता है। भिक्षु प्रतिमाएँ प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञा विशेष। निग्रंथ मुनियों के अभिग्रह विशेष को प्रतिमा कहा गया है। प्रतिमाधारी मुनि शरीर को संस्कारित करता है तथा शरीर के 252 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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