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________________ स्पष्ट करते हैं कि श्रमण संस्कृति का श्रमण श्रमणत्व को स्वीकार कर तपकर्म का आचरण करता है और अन्त में मोक्ष पद को प्राप्त करता है। स्कन्दक परिव्राजक, कालास्यवेषि-पुत्र, ऋषभदत्त-ब्राह्मण, देवानंदा-ब्राह्मणी, उदायन राजा आदि अनेक व्यक्तियों द्वारा तप की उत्कृष्ट साधना को अपनाकर मुक्ति प्राप्ति की गई।30 तप बंधे हुए कर्मों को क्षय करने की प्रवृत्ति है। आत्मा का शुद्धिकरण है। चूंकि तप की प्रक्रिया आत्मा पर लगे कर्म पुद्गलों को हटाकर विशुद्ध आत्मस्वरूप को प्रकट करती है अतः तप को आत्मा के शोधन की प्रक्रिया माना है। भगवतीसूत्र में तप का फल व्यवदान (कर्मों का क्षय, विशुद्धि) बताया गया है। जैनपरम्परा में तप की उत्कृष्ट साधना का कितना महत्त्व रहा है, यह बात जैन तीर्थंकरों के जीवन से स्पष्ट हो जाती है। श्रमण भगवान् महावीर ने अपने साधना-काल के साढ़े बारह वर्षों में से ग्यारह वर्ष निराहार रहकर बिताये थे। आचारांग के नवें अध्ययन में भगवान् महावीर के उग्रतपस्वीरूप का सशक्त चित्रण मिलता है। भगवतीसूत्र में वर्णित स्कन्दक-परिव्राजक का प्रकरण तप की महत्ता व उत्कृष्टता को प्रकट करता है। ___ वस्तुतः तप जीवन का ओज व शक्ति है, तप विहीन साधना खोखली होती है। तप की महिमा को बताते हुए मधुकर मुनि लिखते हैं कि 'तप भारतीय साधना का प्राणतत्त्व है, जैसे शरीर में ऊष्मा जीवन के अस्तित्व का द्योतक है, वैसे ही साधना में तप उसके दिव्य अस्तित्व को अभिव्यक्त करता है। तप के बिना न निग्रह होता है न अभिग्रह होता है। तप दमन नहीं शमन है। तप आहार का ही त्याग नहीं, वासना का भी त्याग है। तप अन्तर्मानस में पनपते हुए विकारों को जलाकर भस्म कर देता है और साथ ही अन्तर्मानस में रहे हुए सघन अन्धकार को भी नष्ट कर देता है। इसलिए तप ज्वाला भी है और ज्योति भी है। तप जीवन को सौम्य, सात्विक और सर्वांगपूर्ण बनाता है। तप की साधना से आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त होती है। तप एक ऐसा कल्पवृक्ष है, जिसकी निर्मल छत्रछाया में साधना के अमृतफल प्राप्त होते हैं। तप से जीवन ओजस्वी, तेजस्वी और प्रभावशाली बनता है।' तप की परिभाषा ___ तप का अर्थ है, तपाना। आचार्य मलयदेवसूरि ने तप की परिभाषा करते हुए कहा है- तापयति अष्टप्रकारं कर्म इति तपः अर्थात् जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, वह तप है । भगवतीसूत्र34 में कहा गया है कि जैसे सूखे घास को अग्नि क्षणभर में जला देती है, उसी तरह तपरूपी अग्नि कर्मों को जला देती है। श्रमणाचार 239
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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