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1. मन गुप्ति, 2. वचन गुप्ति, 3. काय गुप्ति
समिति व गुप्ति के महत्त्व को बताते हुए मूलाराधना " में कहा गया है कि समितियों का दृढ़ता से पालन करने वाला श्रमण विविध कार्य करता हुआ भी पापों से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता है जैसे कवच पहने हुए योद्धा पर तीक्ष्ण बाण असर नहीं करते हैं। जिस तरह क्षेत्र की रक्षा के लिए बाड़ या नगर की रक्षा हेतु खाई होती है, वैसे ही पाप के निरुन्धन के लिए गुप्तियाँ उपयोगी हैं। समिति और गुप्ति के अभाव में महाव्रत सुरक्षित नहीं रह सकते ।
प्रतिसेवना
पाप या दोषों से होने वाली चारित्र की विराधना को प्रतिसेवना कहते हैं । भगवतीसूत्र में प्रतिसेवना के दस प्रकार बताये गये हैं ।
1. दर्पप्रतिसेवना (अहंकारपूर्वक होने वाली संयम की विराधना )
2. प्रमादप्रतिसेवना (मद्य, विषय - कषाय, निद्रा, विकथा आदि प्रमादों के सेवन से होने वाली संयम की विराधना )
3. अनाभोगप्रतिसेवना (अनजाने में हो जाने वाली संयम की विराधना ) 4. आतुरप्रतिसेवना ( भूख, प्यास, रोग, व्याधि आदि किसी पीड़ा से व्याकुलतावश संयम की विराधना )
5. आपतप्रतिसेवना ( किसी आपत्ति या संकट आने पर की गई संयम की विराधना )
6. संकीर्णप्रतिसेवना ( स्वपक्ष और परपक्ष से होने वाली स्थान की तंगी के कारण संयम मर्यादा में दोष लगना)
7. सहसाकारप्रतिसेवना (बिना प्रतिलेखना किये अचानक दोषयुक्त प्रवृत्ति करना)
8. भयप्रतिसेवना ( सिंह आदि के भय से संयम की विराधना करना) 9. प्रद्वेषप्रतिसेवना (किसी के प्रति क्रोधादि कषायों के कारण संयम की विराधना करना)
10. विमर्शप्रतिसेवना (शिष्य की परीक्षा आदि के लिए विचारपूर्वक की गई संयम की विराधना )
आलोचना 18
प्रतिसेवना के किसी भी प्रकार के कारण अगर संयम की विराधना होती है तब अपना दोष सरलतापूर्वक गुरुजनों के समक्ष प्रकट करना आलोचना है ।
श्रमणाचार
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