________________
साठ
सात दिव्य (देवभव), सात संयूथनिकाय, सात संज्ञीगर्भ (मनुष्य- गर्भावास), सात परिवृत्त - परिहार (उसी शरीर में पुनः पुनः प्रवेश - उत्पत्ति) और पांच लाख, हजार छह सौ तीन कर्मों के भेदों को अनुक्रम से क्षय करके तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं।' इसके पश्चात् स्व: सिद्धान्तानुसार 'शरप्रमाण' काल, महाकल्प, महामाणस आदि काल का विवेचन किया है।
अष्ट चरम- चरम से तात्पर्य है- 'जो फिर कभी नहीं होंगे।' भगवतीसूत्र” में गोशालक द्वारा निम्न आठ चरम पदार्थों की प्ररूपणा की गई।
1. चरमपान, 2. चरमगान, 3. चरमनाट्य, 4. चरमअंजलिकर्म, 5. चरम पुष्कल - संवर्त्तक महामेघ, 6. चरम सेचनक गंधहस्ती, 7. चरम महाशिला - कण्टकसंग्राम, 8. चरम तीर्थंकर ।
उक्त अष्टचरम के प्रतिपादन के साथ ही गोशालक द्वारा यह घोषणा की गई - 'मैं ( मंखलिपुत्र गोशालक ) इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकरों में से चरम तीर्थंकर होकर सिद्ध होऊँगा ।'
पानक-अपानक- भगवतीसूत्र में आजीविक सिद्धान्त के अन्तर्गत चार प्रकार के पानक एवं चार प्रकार के अपानक का उल्लेख मिलता है । चार प्रकार के पानक निम्न हैं
1. गाय की पीठ से गिरा हुआ 2. हाथ से मसला हुआ 3. सूर्य के ताप से तपा हुआ 4. शिला से गिरा हुआ। चार प्रकार के अपानक इस प्रकार हैं ।
1. स्थालपानक, 2. त्वचापानक, 3. सिम्बलीपानक, 4. शुद्धपानक भगवतीसूत्र में इनके स्वरूप का विस्तार से विवेचन हुआ है।
निमित्तवाद - आजीविक सम्प्रदाय के इन मुख्य सिद्धान्तों के अतिरिक्त भगवतीसूत्र ” में यह भी विवेचन किया गया है कि आजीविक अष्टांग महानिमित्त, नवें गीतमार्ग व दसवें नृत्यमार्ग के ज्ञाता होते थे । अष्टांग निमित्त इस प्रकार हैं1. दिव्य, 2. औत्पात, 3. आन्तरिक्ष, 4. भौम, 5. आंग, 6. स्वर, 7. लक्षण, 8. व्यंजन
ग्रंथ 20 में अष्टांग महानिमित्त के उपदेश से सभी प्राणियों, भूतों, सत्वों व जीवों के लिए निम्न छ: बातों को अनतिक्रमणी बताया गया है
1. लाभ, 2. अलाभ, 3. सुख, 4. दु:ख, 5. जीवन, 6. मरण उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भगवतीसूत्र में गोशालक के जीवन-चरित्र के साथ-साथ आजीविक सम्प्रदाय के इतिहास, सिद्धान्तों, आचार, अनुयायियों
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
208