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न्यायदर्शन ने चार । ये दोनों परंपराएँ अनुयोगद्वार में प्रमाण की चर्चा में विस्तार से प्राप्त होती हैं। इसमें जैन व्याख्यापद्धति से प्रमाण की चर्चा की गई है । अनुयोगद्वार के रचयिता ने शब्द के व्याकरण, कोषादि प्रसिद्ध सभी संभावित अर्थों का समावेश करके, व्यापक अर्थ में प्रमाण शब्द प्रयुक्त किया है।
भगवतीसूत्र में प्रमाण चर्चा
भगवतीसूत्र यद्यपि दर्शन का ग्रंथ है, किन्तु इसमें व्यापक रूप से प्रमाण की चर्चा प्राप्त नहीं होती है। प्रमाण चर्चा को एकसूत्र द्वारा इस प्रकार व्यक्त किया गया है- जहा णं भंते! केवली अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासति तथा णं छउमत्थे वि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासति ? गोमा ! णो इट्टे समट्ठे, सोच्चा जाणति पासति पमाणतो वा । (5.4.26) अर्थात् केवली मनुष्य जिस प्रकार अन्तकर या अन्तिम शरीर को जानता - देखता है । उसी प्रकार से छद्मस्थ नहीं जानता व देखता है, वह सुनकर या प्रमाण द्वारा जानता व देखता है ।
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स्पष्ट है कि यहाँ पाँचों ज्ञान की दृष्टि से उत्तर न देकर मुख्य रूप से प्रमाण की दृष्टि से उत्तर दिया गया है। यह प्रयोग इस बात को सिद्ध करता है कि जैनेतर अन्य दर्शनों की तरह जैन आगमकार प्रमाण व्यवस्था से अनभिज्ञ नहीं थे । वे स्वसंमत ज्ञानों की तरह प्रमाणों को भी ज्ञाप्ति में स्वतंत्र साधन मानते थे 1 प्रमाण के प्रकार
भगवतीसूत्र में प्रमाण के चार प्रकार बताये गये हैं- पणामे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे । जहा अणुयोगद्दारे तहा यव्वं पमाणं जाव तेण परं नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे, परंपरागमे - (5.4.26) अर्थात् प्रमाण चार प्रकार के हैं; प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य व आगम। इनका विवेचन अनुयोगद्वारसूत्र से पूरा करने का निर्देश दिया गया है। अनुयोगद्वारसूत्र " के अनुसार इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है ।
प्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद किये गये हैं; इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष । इन्द्रियप्रत्यक्ष के पाँच भेद किये गये हैं- 1. श्रोत्रेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, 2. चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष, 3. घ्राणेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, 4. जिह्वेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, 5. स्पर्शेन्द्रिय- प्रत्यक्ष | जैन परम्परा में ज्ञान चर्चा में इन्द्रियजन्य ज्ञानों को परोक्षज्ञान के अन्तर्गत रखा गया है, किन्तु प्रमाण की चर्चा परसंमत प्रमाणों के ही आधार से है, अतएव यहाँ उसी के अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष- प्रमाण कहा गया है । यहाँ मानसइन्द्रिय को
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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