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________________ ज्ञान व प्रमाण की स्वतंत्रता जैनागमों में ज्ञान के विकास की तीनों भूमिकाओं के अवलोकन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन-आगम ग्रंथों में ज्ञानचर्चा को प्रमाण से स्वतंत्र रखा है। वहाँ ज्ञानचर्चा के साथ प्रमाणचर्चा का कोई संबंध स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया गया है। पाँचों ज्ञानों में ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के भेद के द्वारा जैन आगमकारों ने वही प्रयोजन सिद्ध किया है जो दूसरे दार्शनिकों ने प्रमाण व अप्रमाण के विभाग द्वारा किया है। अर्थात् आगमग्रंथों में प्रमाण व अप्रमाण इन विशेषणों का प्रयोग किये बिना ही प्रथम तीन ज्ञानों (मति, श्रुत व अवधि) में विपर्यय-मिथ्यात्व व सम्यक्त्व की संभावना मानी है तथा अंतिम दो ज्ञान (मनपर्यवः व केवल) में एकान्त सम्यक्त्व बताया है। इस संबंध में मालवणिया जी लिखते हैं- जब भी आगमों में ज्ञान का वर्णन आता है तब प्रमाणों या अप्रमाणों से उन ज्ञानों का क्या संबंध है, उसे बताने का प्रयत्न नहीं किया है और जब प्रमाणों की चर्चा आती है तब किसी प्रमाण को ज्ञान कहते हुए भी आगम प्रसिद्ध पाँच ज्ञानों का समावेश और समन्वय उसमें किस प्रकार है, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। इससे यही फलित होता है कि आगमकारों ने जैनशास्त्र प्रसिद्ध ज्ञानचर्चा और अन्य दर्शनों में प्रसिद्ध प्रमाणचर्चा का समन्वय करने का प्रयत्न नहीं किया। दोनों चर्चा का पार्थक्य ही रखा।2 जैनागमों में प्रमाणचर्चा जैनागमों में प्रमाण का किसी ना किसी रूप में विवेचन अवश्य मिलता है। सूत्रकृतांगसूत्र में प्रायः दार्शनिक तत्त्वों को महत्त्व दिया गया है। इसमें 363 विचारधाराओं का प्रमाण की दृष्टि से नाम निर्देश किया गया है। प्रथम अध्ययन में स्वसमयपरसमय के प्रमाणों को महत्त्व दिया गया है। स्थानांगसूत्र में निक्षेप पद्धति की दृष्टि से प्रमाण के चार भेद किये गये हैं- द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण 4 स्थानांग में प्रमाण के लिए हेतु व व्यवसाय शब्द का प्रयोग मिलता है। ज्ञाप्ति के साधनभूत होने से प्रत्यक्षादि को हेतु शब्द से व्यक्त किया जा सकता है। जहाँ हेतु शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ प्रमाण के चार भेद किये गये हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। स्थानांग में प्रमाण के तीन भेद भी प्राप्त होते हैं। वहाँ प्रमाण के स्थान पर व्यवसाय शब्द का प्रयोग हुआ है- तिविहे ववसाये पण्णत्ते तं जहा - पच्चक्खे पच्चइए आणुगामिए - (3.3.395) अर्थात् व्यवसाय तीन प्रकार के हैं; प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक और अनुगमिक। वस्तुतः सांख्य दर्शन ने तीन प्रमाण माने हैं और ज्ञान एवं प्रमाण विवेचन 167
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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